Saturday, 2 May 2015

The Parting Night

Who do I remind you of?
Who do I make you forget?
What is my name tonight?

Whose presence are you assured of
when you take my hand in yours?
Whose silence of years becomes apparent
as we sing today?
Whose memory asphyxiates you tonight?

Cast a spell and turn me into a stone so I don't age
and my silence will haunt you 
like a faceless mannequin
like an old poignant song
like a lonely maiden's curse
-the end of a festive season

Who do I remind you of?
Whose voice is my voice tonight?
Woven as strands of moments on the monologue of time,
whose silence becomes our silence tonight?

The wind whispers my predicament through your entangled hair:
What will you have become 
when we meet the next time
-a saint devoid of all desires?
-a heart puckered and ugly?
-a lump of hardened wax?

Cast a spell and turn me into a songbird,
so when you return to your homeland
the trees shall sing my songs,
my muse will float over the rivers

Who will the melancholic music remind you of?
What will you have lost to time?
Of whose elaborate memory, whose plaintive absence
will I be a peripheral fragment?

The parting night sings a melody,
the moon and the stars cast a spell,
and I am lost in a vast desert,

I look for you,
What is your name tonight?

I scream, there is no voice
I cry, there are no tears

I close my eyes and see at a distance:
A beautiful but silent songbird
perched on a puckered cold stone- lined with wax

Who do you remind me of?
Who do you make me forget?
What is you name tonight?

मोज़ीन-१/समय

समय क्या है?
तुम्हारे केश-विन्यास की उलझन?

समय में खोजते हैं हम
एक दूसरे को,
समय चुराकर रख लेते हैं हम
मुट्ठियों में बंद करके

समय से आँखें चुराकर
हम खर्च करते हैं,
हृदय का ताप ,आँखों की नमी
और समय फिसलकर फ़ैल जाता है,
तुम्हारी मुस्कान पर

समय छूटकर बह जाता है,
नदी के तट  से,
गीतों की अविरल धारा में

समय चला जाता है और
नहीं ही मिलता हमे
तलाश में किसकी हम साथ चलते हैं?

एक घडी की टिक-टिक से
समय भर जाता है मुझमे
जीवन भर के लिए
समय में सार्थक हो जाती हैं,
गीत-ग़ज़लें -कवितायेँ
मेरी-तुम्हारी-हमारी

तुम्हारी कलाई पर मैं
समय की अनुपस्थिति के चिन्ह पता हूँ

समय में हम खोजते हैं खुदको,
समय में तलाश ख़त्म होती है

समय क्या है?
क्षणों में युगों की यात्रा कराती,
मेरी हथेली पर अंकित,
तुम्हारी हथेलियों की ऊष्मा?

Wednesday, 22 April 2015

अहम् और अनुभूति


मैं तुम्हारी अंतर्ध्वनि नहीं सुन सका
तुम्हारे अस्तित्व के अवलोकन में डूबा,
क्या मेरा समूचा इतिहास एकांगी है?



जिस अग्नि से विमुख होकर चला था शहर से दूर
उसके फूटने से वसंत भर आता है पहर-पहर यहाँ
खोज अविरल अविराम किसकी, बुझे हुए पलाशों में?



और अंतिम भेंट में इतने अधिक वो गहरा गए
स्वाद-गंध-मर्म, गरिमा जिनकी रखते न बनती थी
हमारा अनुराग, हमारा वैराग, कौन सा सत्य- याद नहीं?



यदि सुन सकते तुम मुझे ऐसे,
जैसे वृक्ष एकाग्र हो समीर को सुनते हैं
जैसे तट सुनता है लहरों का उच्छ्वास
तो गाते तुम भी जैसे पक्षी गाते हैं उन्मुक्त भाव से,
जैसे माझी का गीत उठता गिरता है नदी की ताल पे,
और तब प्राण मेरे, तुम्हारे अंतर्-संगीत का पर्याय हो जाते



तुम अनुभूति हो, वही रहना, क्या शब्द-चित्रों में तुम्हे बाँधा जाए
वही झिझक, वही फितूर, वही नयनों के जल तरंग निर्दोष समाये
नीरस असाध्य कुम्हलाती कल्पना अपने ही बोझ की मारी
बुनावट की अंतहीन उलझन, मुक्तावस्था पर मिथ्यावस्था भारी
सरल सहज भावों की माला, टूट टूट आज अपवाद सुनाये
अहम् में बंधा कोरा कवि मगर, कहो किस प्रेरणा को गाये ?



नूतनता, हाय! नूतनता,
तूफ़ान शांत करती पेड़ों की कतार से अनुराग,
जड़हीन तैरते पौधों की अल्हड ताल पर थिरकना,
मस्तिष्क पटल कोरा-सुन्दर, अनुमेहा- आत्मसंगीत
अनुभव पिघले कांच से पारदर्शी, निक्षेप से क्षणिक
बहाव-उड़ान-मुक्ति-जीवन, सहचर जन्मों के
नूतनता! कितनी सौमिल, हाय! नूतनता



जो कहता है मूक होकर कि अबिदीन है वो मेरा
जिसकी शक्ल-ओ-सूरत मिलती है सबसे, मगर नायब है
जिसकी छाया-आकृति उड़ जाती है भाप बनकर, ह्रदय का ताप पाते ही
जिसकी अचरता का गान ढकेलता है शून्य की ओर,
जिसका क्षणिक समर्पण मीठा शब्दजाल है, कोरी कविता है
वो कौन है? किसकी परछाईं का एक सिरा तुम्हारे पास है?






पुराने लोग

पुराने लोग- धीमी पसरती मुस्कान की तरह,
चेहरे पर, गीली मिटटी में 
गहरी खुदी लम्बी छोटी रेखाओं की तरह,
स्वयं को दोहराते ख़्वाबों में झलक भर दीखते,
कभी घंटों बैठे रहते 
बोलते हुए, हँसते-खिलखिलाते, कभी चुप 
कभी आईने के किसी कोने से 
बिम्ब का कोण बदलते 
कभी सडकों पर अनजाने चेहरों में दिख जाते 
कभी धुंध लेते अभिव्यक्ति हमारी आदतों में,
कभी मौन होकर हमारे शब्दों की बीच की जगहों से झांकते 

दिए की परछाईं से ढक चुकी हथेलियों की छाप में,
रियर व्यू  मिरर पर लगे छोटे से अमित धूल के निशान  में,
समुद्र किनारे की रेत की तरह 
छायाओं की छायाओं में, भावों के भावो में 
जब देख सकते हैं हम उन्हें मगर पूछ नहीं सकते-
"कब से बंद हो यहाँ?
कैदी कौन? तुम या मैं?"

पुराने लोग, उन सभी चित्र-गंध-वाणी के बिम्बों में,
जो उतारते-उतारते हृदय में इतने गहरा गए,
की नए लोगों से हम कभी मिल ही नहीं पाये।

कविता और तुम

कविता ख़त्म नहीं होगी,
वह चल चुकी थी गंतव्य के लिए,
सूर्योदय से बहुत पहले

जब तुम्हारे मन में विचार का भ्रूण उपजा था
और उसे लेकर तुम चल रहे थे खुद में,
उसमे अपनी साँसें भरते हुए,
साँचे में ढालते हुए
उड़ते हुए, तैरते हुए
विचारों से उपजे विचारों में,
हवा से हलके, नदी से गहरे

वह पहला शब्द जो तुमने लिखा था,
गहन अनुभूति से पाया
जिसे बाँट सकते थे तुम केवल एक हृदय  के साथ
वह जो आत्मसात कर ले
तुम्हे और तुम्हारी कविता को

इन सबसे बहुत पहले जन्मी थी कविता,
और निकल चुकी थी अपने गंतव्य की ओर ,
गंतव्य जिसे तुम देख नहीं सकते,
जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते

तुम सूर्यास्त को देख सकते हो,
मगर डूब नहीं सकते-
सूर्य की लालिमा के साथ गहरे समुद्र में,
उग नहीं सकते भोर की फुटन के साथ, फ़ैल नहीं सकते
तुम साध नहीं सकते वो गहराइयाँ
जिनसे उपजी तुम्हारी कविता तुम्हे अपनी सी लगती है

कविता श्वास की तरह बहती है
और साथ कर लेती है तुम्हे भी
अपने अंतहीन सफर में क्षण भर का भागीदार बनाकर
और उसमे खोज लेते हो तुम कुछ अपना
नेत्रों के तालाब में अनंत की परछाईं सा

तुम्हारी नश्वरता माध्यम भी है और बाधा भी,
तुम्हारे और तुम्हारी कविता के बंधन की ।

विदा की कविता-3 / अंतिम

और कुछ विचार करने के बाद मुझे लगा,
कि सब सामान नहीं ले जा सकते हम एक शहर से दूसरे तक

 हाँ! कभी भी किसी पलायन में,
सब कुछ नहीं जाता रेल के डिब्बों में बैठकर,
आँखें मूंदे गुज़रते रास्तों से अनभिज्ञ,
रुक जाता एक ऐसी जगह पर जो न इस शहर में है,
न जहाँ हम जाएंगे उस शहर में,
वो गुम हो जाता है कहीं बीच रास्ते में,
थकान से, अनमने से, टूटन से, बेहोशी से
और फिर वो किसी का नहीं रहता,
जो नाम लेकर पुकार ले फिर उसका हो जाने तक

और इस विचार में डूबा मैं भी छूट जाऊँगा
किसी के स्मृतिचिन्ह की तरह,
किसी मित्र की नेत्र-आभा बनकर,
इस शहर से उस शहर के बीच में कहीं,
तुम पुकार लेना मुझे!
अजनबी राह की आवाज़ बनकर,
भटकते राही का सम्बल बनकर।

विदा की कविता -2

पत्तों से खाली, कटीली सी दिखने वाली
पेड़ की डालियों के झरोखे से,
चाँद दिखा नहीं जैसे दिखता है,
चित्रों में, बनावटों में, उपमाओं में,
रूपकों में, कवि की कल्पनाओं में

चाँद खो गया के ख्याल ने
रात को डरावने ख़्वाबों से भर दिया

आँखें मीचते सुबह उठी तो रात ने देखा,
डालियों पर चाँदनी की उजली,
सुनहरी पत्तियां निकली थी

वक़्त मिले तो अगले बसंत तुम
बैगनी फूलों वाले पेड़ की छाया में, या यूँ ही,
चाँद को देखना कभी, गौर से|

विदा की कविता-1

खिड़की से बाहर वाले बागीचे में खिलते हैं कुछ फूल
और फिर स्वभाव से, मुरझाकर सौंप अपने रूप गंध ऊष्मा
धरा में मिल जाते हैं

यह देख झुँझलाकर मैंने तोड़ दिया फूलदान अपना,
जिसमे लम्बे समय से कुछ मृत फूल
बाज़ारू इत्र में सने हुए,
अपनी नकली मुस्कान बिखेरते
पड़े हुए थे, झूठे यौवन की गाथा गाते

उन फूलों को मैं आज सुबह सुबह
एक जीवित कवि के मकबरे पर छोड़ आया।

Tuesday, 24 March 2015

बंधन

चाँद का एक कतरा,
पेड़ के एक तने पर टिका,
हरे पत्तों के बीच बड़ा सब्ज़ दीखता है

चाँद के किनारे घिसकर कोमल हो गए हैं,
मानो पिघलकर बहने लगेंगे
अभी शाखों पर, पत्तों पर

कुछ डालियाँ कटीली सी, झुरमुट बनाये
हवा से हिलती हैं दायें-बाएं
और चाँद को चुभ जाती हैं पोरें उनकी,
चाँद की कोमल देह पर
हवाओं के गान- डालों के नृत्य
के पैटर्न उभरते हैं

और देखते ही बनती है
चाँद की पकी हुई मुस्कान
पेड़ में बुने हुए चाँद के रेशे,
रेशे चाँद के या कि पेड़ के?

हर शाम आसमां से खिड़की तक,
जो दुधिया रास्ता तय करके,
तुम चले आते हो दबे पाँव,
उसका एक सिरा पेड़ की जड़ों में
फंसा मालूम होता है |

Saturday, 21 February 2015

आवाज़ दो



तुम चले ख्वाबगाह से, जाने किस ओर
क्या गर्त में हो? आवाज़ दो

आवाज़ दो
कि तुम्हारी गूँज में मैं सुन सकूं खुद को
और मुझे सुनकर तुम्हे लगे
कि बदल गयी है आवाज़ तुम्हारी
टकराकर गुफा के पत्थरों से

आवाज़ दो
कि हौंसला हो मुझे; कि महज़ आवाज़ ही नहीं,
तुम कुछ और भी हो
या भाप बनकर तुम उड़ भी जाओ
तो आवाज़ रहे बंद होकर, चट्टानों के ह्रदय में

आवाज़ दो
कि आज़ाद हो सकूं मैं
अपनी महत्ता, अपने मामूलीपन के द्वंद्व-भावों से
आवाज़ दो कि तुम्हे छूकर मैं जीवित ख्वाब बन जाऊं
आवाज़ दो कि फूटकर निकली मैं अपनी आवाज़ बन जाऊं

आवाज़ दो कि ख़ामोशी बोलती है,
आवाज़ दो कि तुम हो,
आवाज़ दो बेवजह,
तुम सुन रहे हो न?    

Wednesday, 11 February 2015

Electrocution of a Dream

The loosely hung ends of your broken wire-frame silhouette,
like the live wires protruding from the bottom of
an abandoned electric pole of a deserted village
follow me through my sleep,
eager to clutch my hands.
A razor blade drops,
I take the cue, the circuit is closed.
I whisper to the bearded night,
'Save me from myself'

हंगामा है

कुछ एक तब्दीलियाँ, होश कहाँ?
खाबीता विसाल बेशाख्ता
लाज़मी है महज़ होना तेरा,
काजल-ओ-पाजेब हंगामा है

कोई चले कोई राहबर हो,
खुदापरस्त या कोई काफिर ही,
हवा चले तो तेरी खुशबू आये,
ज़िक्र-ए-बयान हंगामा है

तू नज़्म है तो फूट कर बह,
किसने रोका है तुझे?
किसका भरम किसकी हया,
शेर-ओ-ग़ज़ल हंगामा है

एक सांस है, एक डोर है,
टूटी चप्पलें हैं, क्या कैफियत?
पैबंद हैं कबसे अपने ही कपड़ों पर,
सीवन का रंज हंगामा है

खोजे किसे कौन, किस घडी?
डूबे तो डूबे तुझमे सारी ग़ज़लें, 
गौर से देखा, दरिया न बयार तुझमे   
तिनकों का शहर है और हंगामा है


 

The Beauty of Conflict



They served me nectar and poison,
in cups that looked alike,
I drank both, without a thought
and found both distasteful
They smiled at me, waiting for me to sing,
to pour out all that had seeped into my heart,
to see which of the two evils had won,
to resolve the conflict, and box up its beauty
in cups that looked alike
I spoke not a word, but returned the smile,
for I had drunk no more of any one than the other.
I overhear from the squabble, their cries in unison
I see in their hardened selves,
the winsomeness of my existence
Is nectar not an ally of poison?
Is silence not what envelopes music?

दवा

तुम कौन हो,
क्या हो, आज फिर सोचा मैंने 
टूटे हुए गीत का अंतरा? नहीं
आधे चाँद से निकली शीतल चांदनी? नहीं
आसमान के मुख पर बेढब फैला काजल? नहीं
उलझी हुई आँखों की बेफर्क हंसी? नहीं
साँसों की मुक्तक डोर, या अंग जिजीविषा का? 
श्वेत का सुकून, नील का फैलाव,
या तूफ़ान शांत करती पेड़ों की कतार?
नहीं! तुम इनमे से कुछ भी नहीं,
यदि तुम कुछ हो तो मेरी दवा
तुम भी सोचोगे, क्या महज़ दवा ? 

हाँ, ये सारी उपमाएं, सारा विस्तार,
ये गहराइयाँ, ये सत्य की तलाश
ये थकान, टूटन और धुप छाँव 
ये लोग-बाग़, ये उलझन-सुलझन,
स्नेह, अनुराग, अनुभूति- आभास
कच्चे-पक्के मांझे से बंधन,    
नींद, सुन्दर सपने,डरावने ख्वाब
शोर-संगीत,चकाचौंध और एकाकीपन,  
मुझे जब तब बीमार कर देते हैं,

तुम आते हो, और ह्रदय स्वतः ही खुल जाता है,
बह निकलती हैं सारी दुविधाएँ, पीडाएं 
और रक्त अणु थोड़े से नए हो जाते हैं,  
कुछ वक़्त लगेगा इन्हें फिर से पुराना होने में,
मुझे मालूम है, तुम मिलोगे मुझे इसी तरह,
फिर किसी शाम की खुराक बनकर|  

चाँद और जंजीरें

टिमटिमाते तारों की फुसफुसाहट में,
सुना है, चाँद रात के दामन में छिपा,
अब रात हो चुका है,
वो आधे-पौने खिलौने, चाँद से दिखने वाले
अब टूट चुके हैं, मिल चुके हैं शीत धरा की मिटटी में,
कोई खिड़की की जाली से एकटक देख रहा है आसमाँ की ओर,
इन सबके बीच आज अचानक यूँ ही,
रात अपने ही अँधेरे से ऊब गयी,
बहुत बरसों में पहली मर्तबा लगा है जैसे,
रात स्याह न रही, शादाब हो गयी है
आज अँधेरा छटने से पहले,
इसकी जंजीरें खुल चुकी होंगी |

LAZAHG

Here I lie in my makeshift grave,
and you sing from your broken cage;

In the autumn you recited a Ghazal,
and we parted as if we never had met

Oh! read the couplets backward, won't you?
so we can meet as if we never had parted

Kill me so we may both come alive,
Will my verses be the weapon of your choice?

They'll dig my abode open and find your wings,
Your voice will be the requiem for my heart.

संबल

मुझे याद है उस शहर से मेरा जाना,
वो कूचे में आखिरी मुलाकात हमारी,
मौन में गूंजती धडकनें,
वो तो बस आँखें थी जो जमी रही,
शब्द होते तो चरमराकर टूट जाते,
फिर तुमने रुमाल में बंधकर कोई तोहफा दिया मुझे,
बस इतना कहा- यह है तुम्हारा 'संबल';
फिर चुप्पी में, मायूसी में, एकाकीपन में, अजीजों के बीच
ख़ुशी में, जलने-बुझने में, ऊँचाई पर और गर्त में,
मेरे साथ रहा वो उपहार तुम्हारा,       
रुमाल में पड़ी वो गिरहें कभी मैंने मगर खोली नहीं,
कहीं कुछ मामूली सा सामान न बाँध दिया हो तुमने आनन-फानन में,
कहीं बेमानी न हो जाएँ वो सारे बंधन,
जो बुने हुए हैं, इस रुमाल के रेशों में परत-दर-परत  
कहीं गिरहें खुलते ही अपनी महानता के तले दबकर,
वजूद न खो दे 'संबल' मेरा|

The Choice

Here in this strange city,
where the deaf play the music,
the blind carry the torches,
what choice did he have, than to be mute tonight
and let the symphony within rip him apart
to be reborn or to be lost in anonymity
The city had all the faces, the hearts to pray for,
the hazy caricatures and smoky existences,
He had but himself to bear with,
he chose but himself to sing to.

कांच का परिंदा

कांच का परिंदा,
यूँ ही पंख फडफडाता है,
आँखों में आसमां,
और उड़ने से घबराता है

डरता है कहीं चकनाचूर हो ना जाएँ,
पंख उसके हवा के थपेड़ों से टकराकर
कहीं बदलते मौसम उड़ा न ले जाए,
किसी अजनबी देश उसे,
कहीं झाँक ना ले कोई पारदर्शी पर्दों से,
जान न ले मन की कहानी,
कहीं आंक न ले कोई साथी खोया वाशिंदा उसे,
कहीं भांप ना ले हवाएं कमसिन कांच का परिंदा उसे

इसलिए पिंजरे में बंद वो,
किसी म्यूजियम में गीत गुनगुनाता है,
लोगों के कौतुक में क्षण भर ही सही,
वो उड़ान की कशिश भूल जाता है,

मगर कुछ आँखें हंसती नहीं उस पर,
केवल सवालात करती हैं,
तब अनंत के ख्वाब को वो चुपके से सहलाता है,
किसी रोज़, हाँ किसी रोज़, सब बंधन तोड़कर
स्वच्छंद, उसे कल-कल बहते कांच में ही मिल जाना है,

पर तब तक वो कांच का परिंदा,
यूँ ही पंख फडफडाता है,
आँखों में आसमां,
और उड़ने से घबराता है

Tuesday, 10 February 2015

An Exalted Dream


When in the winter sun,
the voices of autumn perched on the branches
shall sing the sweet suffering of life
I'll walk barefoot from Kapilvastu to Bamiyan,
purchasing paperbacks at every haltage,
'Samsara' and 'Nirvana' smiling at each other.
I'll be the evening breeze that whispers,
to the monks and the worldly men alike,
I'll be the tree that hides the giant scars
on the face of the illustrious one.
I'll write to you one lazy afternoon,
and we'll meet and merge, we'll fly and flow
beyond names and forms.