Wednesday, 11 February 2015

कांच का परिंदा

कांच का परिंदा,
यूँ ही पंख फडफडाता है,
आँखों में आसमां,
और उड़ने से घबराता है

डरता है कहीं चकनाचूर हो ना जाएँ,
पंख उसके हवा के थपेड़ों से टकराकर
कहीं बदलते मौसम उड़ा न ले जाए,
किसी अजनबी देश उसे,
कहीं झाँक ना ले कोई पारदर्शी पर्दों से,
जान न ले मन की कहानी,
कहीं आंक न ले कोई साथी खोया वाशिंदा उसे,
कहीं भांप ना ले हवाएं कमसिन कांच का परिंदा उसे

इसलिए पिंजरे में बंद वो,
किसी म्यूजियम में गीत गुनगुनाता है,
लोगों के कौतुक में क्षण भर ही सही,
वो उड़ान की कशिश भूल जाता है,

मगर कुछ आँखें हंसती नहीं उस पर,
केवल सवालात करती हैं,
तब अनंत के ख्वाब को वो चुपके से सहलाता है,
किसी रोज़, हाँ किसी रोज़, सब बंधन तोड़कर
स्वच्छंद, उसे कल-कल बहते कांच में ही मिल जाना है,

पर तब तक वो कांच का परिंदा,
यूँ ही पंख फडफडाता है,
आँखों में आसमां,
और उड़ने से घबराता है

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