मुझे याद है उस शहर से मेरा जाना,
वो कूचे में आखिरी मुलाकात हमारी,
मौन में गूंजती धडकनें,
वो तो बस आँखें थी जो जमी रही,
शब्द होते तो चरमराकर टूट जाते,
फिर तुमने रुमाल में बंधकर कोई तोहफा दिया मुझे,
बस इतना कहा- यह है तुम्हारा 'संबल';
फिर चुप्पी में, मायूसी में, एकाकीपन में, अजीजों के बीच
ख़ुशी में, जलने-बुझने में, ऊँचाई पर और गर्त में,
मेरे साथ रहा वो उपहार तुम्हारा,
रुमाल में पड़ी वो गिरहें कभी मैंने मगर खोली नहीं,
कहीं कुछ मामूली सा सामान न बाँध दिया हो तुमने आनन-फानन में,
कहीं बेमानी न हो जाएँ वो सारे बंधन,
जो बुने हुए हैं, इस रुमाल के रेशों में परत-दर-परत
कहीं गिरहें खुलते ही अपनी महानता के तले दबकर,
वजूद न खो दे 'संबल' मेरा|
वो कूचे में आखिरी मुलाकात हमारी,
मौन में गूंजती धडकनें,
वो तो बस आँखें थी जो जमी रही,
शब्द होते तो चरमराकर टूट जाते,
फिर तुमने रुमाल में बंधकर कोई तोहफा दिया मुझे,
बस इतना कहा- यह है तुम्हारा 'संबल';
फिर चुप्पी में, मायूसी में, एकाकीपन में, अजीजों के बीच
ख़ुशी में, जलने-बुझने में, ऊँचाई पर और गर्त में,
मेरे साथ रहा वो उपहार तुम्हारा,
रुमाल में पड़ी वो गिरहें कभी मैंने मगर खोली नहीं,
कहीं कुछ मामूली सा सामान न बाँध दिया हो तुमने आनन-फानन में,
कहीं बेमानी न हो जाएँ वो सारे बंधन,
जो बुने हुए हैं, इस रुमाल के रेशों में परत-दर-परत
कहीं गिरहें खुलते ही अपनी महानता के तले दबकर,
वजूद न खो दे 'संबल' मेरा|
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