Wednesday, 22 April 2015

विदा की कविता-1

खिड़की से बाहर वाले बागीचे में खिलते हैं कुछ फूल
और फिर स्वभाव से, मुरझाकर सौंप अपने रूप गंध ऊष्मा
धरा में मिल जाते हैं

यह देख झुँझलाकर मैंने तोड़ दिया फूलदान अपना,
जिसमे लम्बे समय से कुछ मृत फूल
बाज़ारू इत्र में सने हुए,
अपनी नकली मुस्कान बिखेरते
पड़े हुए थे, झूठे यौवन की गाथा गाते

उन फूलों को मैं आज सुबह सुबह
एक जीवित कवि के मकबरे पर छोड़ आया।

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