Saturday, 21 February 2015

आवाज़ दो



तुम चले ख्वाबगाह से, जाने किस ओर
क्या गर्त में हो? आवाज़ दो

आवाज़ दो
कि तुम्हारी गूँज में मैं सुन सकूं खुद को
और मुझे सुनकर तुम्हे लगे
कि बदल गयी है आवाज़ तुम्हारी
टकराकर गुफा के पत्थरों से

आवाज़ दो
कि हौंसला हो मुझे; कि महज़ आवाज़ ही नहीं,
तुम कुछ और भी हो
या भाप बनकर तुम उड़ भी जाओ
तो आवाज़ रहे बंद होकर, चट्टानों के ह्रदय में

आवाज़ दो
कि आज़ाद हो सकूं मैं
अपनी महत्ता, अपने मामूलीपन के द्वंद्व-भावों से
आवाज़ दो कि तुम्हे छूकर मैं जीवित ख्वाब बन जाऊं
आवाज़ दो कि फूटकर निकली मैं अपनी आवाज़ बन जाऊं

आवाज़ दो कि ख़ामोशी बोलती है,
आवाज़ दो कि तुम हो,
आवाज़ दो बेवजह,
तुम सुन रहे हो न?    

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