Wednesday, 11 February 2015

दवा

तुम कौन हो,
क्या हो, आज फिर सोचा मैंने 
टूटे हुए गीत का अंतरा? नहीं
आधे चाँद से निकली शीतल चांदनी? नहीं
आसमान के मुख पर बेढब फैला काजल? नहीं
उलझी हुई आँखों की बेफर्क हंसी? नहीं
साँसों की मुक्तक डोर, या अंग जिजीविषा का? 
श्वेत का सुकून, नील का फैलाव,
या तूफ़ान शांत करती पेड़ों की कतार?
नहीं! तुम इनमे से कुछ भी नहीं,
यदि तुम कुछ हो तो मेरी दवा
तुम भी सोचोगे, क्या महज़ दवा ? 

हाँ, ये सारी उपमाएं, सारा विस्तार,
ये गहराइयाँ, ये सत्य की तलाश
ये थकान, टूटन और धुप छाँव 
ये लोग-बाग़, ये उलझन-सुलझन,
स्नेह, अनुराग, अनुभूति- आभास
कच्चे-पक्के मांझे से बंधन,    
नींद, सुन्दर सपने,डरावने ख्वाब
शोर-संगीत,चकाचौंध और एकाकीपन,  
मुझे जब तब बीमार कर देते हैं,

तुम आते हो, और ह्रदय स्वतः ही खुल जाता है,
बह निकलती हैं सारी दुविधाएँ, पीडाएं 
और रक्त अणु थोड़े से नए हो जाते हैं,  
कुछ वक़्त लगेगा इन्हें फिर से पुराना होने में,
मुझे मालूम है, तुम मिलोगे मुझे इसी तरह,
फिर किसी शाम की खुराक बनकर|  

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