Wednesday, 22 April 2015

अहम् और अनुभूति


मैं तुम्हारी अंतर्ध्वनि नहीं सुन सका
तुम्हारे अस्तित्व के अवलोकन में डूबा,
क्या मेरा समूचा इतिहास एकांगी है?



जिस अग्नि से विमुख होकर चला था शहर से दूर
उसके फूटने से वसंत भर आता है पहर-पहर यहाँ
खोज अविरल अविराम किसकी, बुझे हुए पलाशों में?



और अंतिम भेंट में इतने अधिक वो गहरा गए
स्वाद-गंध-मर्म, गरिमा जिनकी रखते न बनती थी
हमारा अनुराग, हमारा वैराग, कौन सा सत्य- याद नहीं?



यदि सुन सकते तुम मुझे ऐसे,
जैसे वृक्ष एकाग्र हो समीर को सुनते हैं
जैसे तट सुनता है लहरों का उच्छ्वास
तो गाते तुम भी जैसे पक्षी गाते हैं उन्मुक्त भाव से,
जैसे माझी का गीत उठता गिरता है नदी की ताल पे,
और तब प्राण मेरे, तुम्हारे अंतर्-संगीत का पर्याय हो जाते



तुम अनुभूति हो, वही रहना, क्या शब्द-चित्रों में तुम्हे बाँधा जाए
वही झिझक, वही फितूर, वही नयनों के जल तरंग निर्दोष समाये
नीरस असाध्य कुम्हलाती कल्पना अपने ही बोझ की मारी
बुनावट की अंतहीन उलझन, मुक्तावस्था पर मिथ्यावस्था भारी
सरल सहज भावों की माला, टूट टूट आज अपवाद सुनाये
अहम् में बंधा कोरा कवि मगर, कहो किस प्रेरणा को गाये ?



नूतनता, हाय! नूतनता,
तूफ़ान शांत करती पेड़ों की कतार से अनुराग,
जड़हीन तैरते पौधों की अल्हड ताल पर थिरकना,
मस्तिष्क पटल कोरा-सुन्दर, अनुमेहा- आत्मसंगीत
अनुभव पिघले कांच से पारदर्शी, निक्षेप से क्षणिक
बहाव-उड़ान-मुक्ति-जीवन, सहचर जन्मों के
नूतनता! कितनी सौमिल, हाय! नूतनता



जो कहता है मूक होकर कि अबिदीन है वो मेरा
जिसकी शक्ल-ओ-सूरत मिलती है सबसे, मगर नायब है
जिसकी छाया-आकृति उड़ जाती है भाप बनकर, ह्रदय का ताप पाते ही
जिसकी अचरता का गान ढकेलता है शून्य की ओर,
जिसका क्षणिक समर्पण मीठा शब्दजाल है, कोरी कविता है
वो कौन है? किसकी परछाईं का एक सिरा तुम्हारे पास है?






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