Wednesday, 22 April 2015

विदा की कविता-3 / अंतिम

और कुछ विचार करने के बाद मुझे लगा,
कि सब सामान नहीं ले जा सकते हम एक शहर से दूसरे तक

 हाँ! कभी भी किसी पलायन में,
सब कुछ नहीं जाता रेल के डिब्बों में बैठकर,
आँखें मूंदे गुज़रते रास्तों से अनभिज्ञ,
रुक जाता एक ऐसी जगह पर जो न इस शहर में है,
न जहाँ हम जाएंगे उस शहर में,
वो गुम हो जाता है कहीं बीच रास्ते में,
थकान से, अनमने से, टूटन से, बेहोशी से
और फिर वो किसी का नहीं रहता,
जो नाम लेकर पुकार ले फिर उसका हो जाने तक

और इस विचार में डूबा मैं भी छूट जाऊँगा
किसी के स्मृतिचिन्ह की तरह,
किसी मित्र की नेत्र-आभा बनकर,
इस शहर से उस शहर के बीच में कहीं,
तुम पुकार लेना मुझे!
अजनबी राह की आवाज़ बनकर,
भटकते राही का सम्बल बनकर।

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