पुराने लोग- धीमी पसरती मुस्कान की तरह,
चेहरे पर, गीली मिटटी में
गहरी खुदी लम्बी छोटी रेखाओं की तरह,
स्वयं को दोहराते ख़्वाबों में झलक भर दीखते,
कभी घंटों बैठे रहते
बोलते हुए, हँसते-खिलखिलाते, कभी चुप
कभी आईने के किसी कोने से
बिम्ब का कोण बदलते
कभी सडकों पर अनजाने चेहरों में दिख जाते
कभी धुंध लेते अभिव्यक्ति हमारी आदतों में,
कभी मौन होकर हमारे शब्दों की बीच की जगहों से झांकते
दिए की परछाईं से ढक चुकी हथेलियों की छाप में,
रियर व्यू मिरर पर लगे छोटे से अमित धूल के निशान में,
समुद्र किनारे की रेत की तरह
छायाओं की छायाओं में, भावों के भावो में
जब देख सकते हैं हम उन्हें मगर पूछ नहीं सकते-
"कब से बंद हो यहाँ?
कैदी कौन? तुम या मैं?"
पुराने लोग, उन सभी चित्र-गंध-वाणी के बिम्बों में,
जो उतारते-उतारते हृदय में इतने गहरा गए,
की नए लोगों से हम कभी मिल ही नहीं पाये।
चेहरे पर, गीली मिटटी में
गहरी खुदी लम्बी छोटी रेखाओं की तरह,
स्वयं को दोहराते ख़्वाबों में झलक भर दीखते,
कभी घंटों बैठे रहते
बोलते हुए, हँसते-खिलखिलाते, कभी चुप
कभी आईने के किसी कोने से
बिम्ब का कोण बदलते
कभी सडकों पर अनजाने चेहरों में दिख जाते
कभी धुंध लेते अभिव्यक्ति हमारी आदतों में,
कभी मौन होकर हमारे शब्दों की बीच की जगहों से झांकते
दिए की परछाईं से ढक चुकी हथेलियों की छाप में,
रियर व्यू मिरर पर लगे छोटे से अमित धूल के निशान में,
समुद्र किनारे की रेत की तरह
छायाओं की छायाओं में, भावों के भावो में
जब देख सकते हैं हम उन्हें मगर पूछ नहीं सकते-
"कब से बंद हो यहाँ?
कैदी कौन? तुम या मैं?"
पुराने लोग, उन सभी चित्र-गंध-वाणी के बिम्बों में,
जो उतारते-उतारते हृदय में इतने गहरा गए,
की नए लोगों से हम कभी मिल ही नहीं पाये।
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