हे श्वेतवस्त्रधारिणी कहो,
कौन सा गान सुनाती हो?
क्या जन्नत समझा इस जहाँ
को, जो परियों के वेश में आती हो?
जलज बनी जल को पावन करती ,क्षण-क्षण
रूह भरती नारायणी
जिजीविषा तुम ही घर भर की, तुम्ही हो जीवन दायिनी
किलकारी की गूँज
तुम्हारी.....
ईटों में भी घर करती, ईटों
को भी घर करती
सीवन की उधडन को भरती, तुम
खुद जीवन बन जाती हो,
हे श्वेतवस्त्रधारिणी कहो,
कौन सा गान सुनाती हो?
तुम मात-पिता की गौरवी ,भावांश
तुम्ही मंदिर-मस्जिद की,
तुम धूप-दीप की भीनी खुशबू
हो ,तुम पाक कल्पना हो वाहिद की
नन्ही अँगुलियों से अपनी
तुम पत्थर को भी जीवंत हो करती,
समस्त सृष्टि का सार समाये
भोले मन में,
हे कन्या! तुम कण-कण में
ज़मीर हो भरती
तुम्ही शक्ति की प्रबल
परिचायक ,और गीता का ज्ञान हो तुम
क्षण भर के स्पर्श से अपने,
शिलाओं को करती महान हो तुम
भूली थी कोयल जो कल घर का रस्ता,
क्या उसकी भटकन का बोध
कराती हो,
हे श्वेतवस्त्रधारिणी कहो,
कौन सा गान सुनाती हो?
क्या जन्नत समझा इस जहाँ
को, जो परियों के वेश में आती हो?
फिर सहसा इक चीख ने जैसे
शांत किया सारे महिमा-वर्णन को,
फिर बोल पड़ी आखिर रूंधे गले
से वो नन्ही सी देवी जैसे—
सब सुन्दर सब सौमिल है, सब
चकाचौंध कविताओं सी
पर देख दशा मेरी मनुज, है
कहाँ तुल्य उपमाओं की
देवी कहकर जीवन मेरा, तुम
ही हो लेने वाले
मुझको सुख का निर्झर कहकर, अगणित
पीडाएं देने वाले
मैं श्वेत्वस्त्रधारिणी ,पवित्रा
तुम मुझको कहते हो
मेरे वस्त्रों को जब-तब तुम
ही मैला करते रहते हो
इतना ही नहीं तुम सभ्य मनुज,
उस अनहोनी का, दोष भी मुझी
पर मढ़ते हो...
हाथों की कोमलता मेरी, घर
के जूठे बर्तनों पर है छपी हुई,
राख के ढेर उठाने से, है
कालिख माथे पर लगी हुई
मुझको जंजीरों में जकड़कर,
तुम गाते हो गौरव-गाथा अपने पुरुषार्थ की
अरे अपना घर अँधेरा रखते हो
तुम,
लानत! तुम करते हो बातें
परमार्थ की
फिर कुछ वक़्त गुज़रता है,
मैं श्वेत्वस्त्रधारिणी से
रक्त्वस्त्रधारिणी हो जाती हूँ
हाय! रक्त भी तो मेरा ही है
जिससे तुम मुझे सजाते हो
परंपरा कहते हो तुम इसे अपनी
धिक्! किस संस्कृति का ढोल
बजाते हो
तार-तार कर सम्मान मेरा,
तुम सोने के आभूषणों से
मुझे बाँध देते हो
हाय! गहने नहीं ये लोहे की
जंजीरें हैं
मेरे अस्तित्व कर खिंची,
अफ़सोस कितनी लकीरें हैं
अरे तुम क्या दोगे
शास्त्रों का ज्ञान मुझे
आँखें खोलो और देखो चारों ओर
अपने,
वो किताबें जो आना चाहती
हैं बाहर ,
इस आधे समाज के अधूरेपन से
अब भी वक़्त है इस ‘देवी’
को, इंसानों सा तो दर्जा दो
या कुछ पहर रुको,
और देखो ये रक्तवस्त्र जो
रक्तविहीन हुए कब से
हुआ संकुचित मन का आलय जब
से
हुई शर्मसार सारी मानवता तब
से....
अब यूँ कौतुहल से न देख
मुझे मनुज,
मैं केवल सत्य का बोध कराती
हूँ
हाँ मैं ही हूँ
दुर्गा-चंडी, मैं ही राधा बन जाती हूँ
नारी हूँ, मैं ही हूँ
नारायणी ,मैं पीड़ा का गान सुनाती हूँ
मैं श्वेत्वस्त्रधारिणी
हूँ, मैं पीड़ा का गान सुनाती हूँ|
जन्नत समझा था इस जहाँ को,
हाँ इसीलिए परियों के वेश में आती हूँ....
यही भूल हुई मुझसे शायद,
इसी की सजा पाती हूँ
हाँ, इसी की सजा पाती हूँ|