Tuesday, 31 December 2013

अब्दुल दीवाना

कितने ख़्वाबों में खोता,
कितनी रातें न सोता,
कितनी बातों पे रोता अब्दुल दीवाना,

उठा कर सर इबादत में आसमां की ओर,
हंस पड़ा वो बेवजह पागलों की तरह,
बरसी बूँद बनकर फकीरी की शोहरतें उस पर,
हँसता चल पड़ा वो आवारा बादलों की तरह,

कभी हंसा मस्जिद के सूनेपन में शह खोजती नमाज़ पर,
हंसा कभी वो मंदिर में सदियों से सोयी मूरतों पर,
कभी फितूर पे हंसा अपने, कभी दस्तूर पर दुनिया के हंसा, 
तो कभी चाँद को अपना कहते, अपनी जैसी सूरतों पर 

वो आधे चाँद के गुरूर पर भी हंसा, 
और हंसा अकेली रात के रोने पर, 
कभी जुगनुओं के टिमटिमाने पे हंसा,
तो कभी टूटे तारों के खोने पर,

कभी हंसा वो सुन्दर कल के सपने पर,
तो कभी रंजिश में बीते सालों पर हंसा,
कभी हंसा दिलेर शायर वो खुद पर,
तो कभी अपनी हंसी उड़ाने वालों पर हंसा

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