Monday, 14 October 2013

ग़ज़ल

ईद का चाँद 

आधा चाँद जिंदा है ,आधा गिन के ले रहा साँसें यहाँ
क्या इस ईद भी तुम्हारा, बस ख़त ही आएगा अब्दुल?

कुछ लम्हों पर जिल्द चढ़कर रखी है, यादें पीली पड़ी हैं
चादनी की सफेदी उजला कर देती है, राख की फाकों को अक्सर

दो तारे कह रहे थे, तुमने तगाफुल कर दिए कुछ अश्क मेरे
सारी रात भीगे थे वो परीजात के फूल, ऐसे बरसा था आसमां

मैं आबिदा हूँ, तुम आबिदीन हो मेरे, सारी दीवारों पे है लिख दिया
बरसों हो गए रात को भी, अब ये बेगैरत जुमले सुनते-सुनते

बेतार नहीं चलता, तो चाँद को ही सुना दिए कई रोज़ मैंने गीत अपने
तुमसे कुछ कहता नहीं, ये मगरिब का चाँद भी बेईमान है शायद

अफवाह है यहाँ कि उस देस कोई नमाज़ नहीं पढता दिल से
खुदा करे ये बात सच हो, तुम इसी बहाने से वतन चले आओ

तुम ईद के चाँद हुए हो सब कहते हैं यहाँ, लेकिन
क्या इस ईद भी तुम्हारा, बस ख़त ही आएगा अब्दुल

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