चिड़िया तुम उडती क्यों
नहीं?
चिड़िया तुम गाती क्यों
नहीं?
लिख दिए जो माथे पर
तुम्हारे,
उन पैमानों में समाती क्यों
नहीं?
देख नभ का फैलाव सखी, है जो
पंख प्रतीक्षा में फैलाए
इच्छा तुम भी तो रखती होगी
ऊँचाई को छूने की
क्या नभ का तप व्यर्थ ही हो
जाने दोगी सखी ?
क्या पंखों को पंखों से
मिलने न तुम दोगी सखी ?
देखो सुरों की हदें , जो आज
अनहद में मिली हैं
झींगुर-मेंढक के समूह-गान
में ,लोग कहते हैं मूक पक्षी तुम्हे
क्या बनी रहोगी यूँ ही धीरज
की निश्चल प्रतिमा तुम?
क्या कंठ से अपने गुंजन
रागों की होने न दोगी तुम ?
ये प्रश्न वर्षा जो मैं तुम
पर करता हूँ,
सखी! सच बस दिखावा है, ऊपरी
कर्तव्य है मेरा
कल अगर तुम सच में उड़ गयी
और खो गयी नभ के विस्तार में कहीं,
या गीत मधुर सुनकर
तुम्हारा, तुम्हे राजकुमार यदि ले गया
सच! छोटी-छोटी आँखों से जब
तुम श्वेत चांदनी में मुझको तकती हो
वो अनुभूति कहो कोमल मन की,
फिर मैं कहाँ से लाऊंगा
ये मूकता का सौंदर्य
तुम्हारा, ये बहती नदी का शांत किनारा,
अब उर से मेरे अभिन्न है ,नभ
के विस्तार से भी सुन्दर है
तुम सरल हो सरल बनी रहना
सखी,
मेरा स्वार्थ मगर तुम किसी
से न कहना सखी,
तुम्हारी आँखों का विस्तार
संगीत है मेरे जीवन का,
तुम्हारी अपूर्णता ही मुझे
पूर्ण करती है|
पर लाचार हूँ सखी! राहगीरों
के संतोष को,
फिर से वही बेतुके प्रश्न
करूँगा तुमसे ,
मन को मारकर, झूठी जिज्ञासा
का मुखौटा चेहरे पर लगाकर
एक अज्ञात भय को अपनी कला
से छुपाकर,
कल फिर निर्लज्ज होकर तुमसे
यही कहूँगा,
चिड़िया तुम उडती क्यों
नहीं?
चिड़िया तुम गाती क्यों
नहीं?
लिख दिए जो माथे पर
तुम्हारे,
उन पैमानों में समाती क्यों
नहीं?
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