दीमक के चंगुल में फंसी,
पुरखों की पुरानी अलमारी को खोला इक रोज़
तो मधुमख्खियों के छत्तों,
और धूल मिट्टी के आशियाने से बढ़कर भी चीज़ें
थी उसमें बंद अरसे से
ये कुछ-कुछ समझा,कुछ जाना मैंने ,
पर कुछ समझ के परे भी सौगातें थी उसमें छुपी
मेरे इंतज़ार में मानो सदियों से बूढी होती
उन फटे पन्नों से जाने क्या रिश्ता था मेरा
पुर्जों को तह लगाकर सलीके से,
क्यों रखा था बेबात किसी ने बरसों तक संजोकर
उस पुरानी किताब में ऐसा क्या ख़ास छिपा था
जो जिंदा रहा समय से परे,
वो वक़्त की परतों से पीले हुए पन्ने
क्यूँ मुझे बंधक कर रहे थे
अकारण ही अपने गहरे तिलिस्म के जालों में
खैर,वो दिन कैसे गुज़रे उस किताब के साथ
अब कुछ ख़ास याद नहीं आता मुझे
बस कुछ धुँधली सी परछाइयां जब-तब
उभर आती हैं मेरे चरित्र के पहलुओं में
कुछ पंक्तियाँ यूँ ही जीवंत हो उठती हैं
उस पुरानी किताब के फटे पन्नों से
कभी रामधुन, कभी कबीर के दोहे
कभी मीरा,खुसरो का दीवानापन याद आता है
वो अमर हुए अशफ़ाक और राम
के बोलों को मन दोहराता है
वो अर्थी पर लेटा किसान
यूँ ही झकझोर जाता मुझे
वो गांधी की टूटी छड़ी
मन देख सच में घबराता है
पर फिर देख दिशा और भेड़चाल
मैं फिर से काबिल हो जाता हूँ
अरे ये सब तो बस मनोवेग हैं पल दो पल के
मिथ्या पहलू मात्र हैं भाव-विह्वल मन के
वो पुरानी किताब तो आज भी उसी अलमारी में
बंद रखी है,
मैंने उसे पढ़ा भी या नहीं कभी क्या पता,
शायद धीरे-धीरे वो किस्से-कहानी
तुडकर-मुड़कर खुद ही उन पन्नों में छप आये हों
किसी सपने से हकीकत की कड़ियाँ
ज्यों अनायास ही जुडती सी चली आयीं हों
वो फटे पन्ने इतने पुराने--ज़रूर किसी दिन
ख्वाब में ही देखे होंगे मैंने |
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