गीत क्यूँ किसी ख़ुशी में, किसी उदासी के मंज़र में अब,
क्यूँ बेवजह यादें सारी इन गीतों से जुड़ जाया करती हैं?
उपमाएं सम पर आ गयी हे सखी आज ह्रदय-रचित सारी,
तुम्हारी पलकें स्वीकृति में क्षण भर भी झुकती क्यों नहीं
आज निकला हूँ खुद की तलाश में सारांश ,भूला हूँ तुम्हे,
मिलूं कभी जो इत्तेफाक से,नज़रें चुरा लेना ज़रूरी तो नहीं|
खो गया सुकूँ कि जिसको ढूंढता हूँ हर घडी
छिन गया जुनूं कि जिससे जूझता था हर पहर
किसी विहग के नेत्र में किन्तु नभ को चूमता
मिटा सका ना ख्वाब को, कोई प्रलय- कोई कहर |
पुर्जे टूटे हैं मेरे मगर ये हवाओं को खबर न हो मौला
सड़क पर बिखरे कांच के टुकड़े कोई चुनने आएगा कहाँ
हादसे इस शहर में अब कोई नयी बात नहीं "सारांश"
हक़ीकत दिखे जो कभी, तो थर्रा से जाते हैं लोग यहाँ |
बूँदें बरसी हैं मृत धरा पर,फिर अरसे के सूखे के बाद,
पत्ते फिर भी तेरी नमी से जाने क्यूँ महरूम हैं,
तेरा नाम भले छिपा हो कहीं इन सिलसिलों की गुफ्तगू में,
जीवन चलते रहने का नाम है, ये अब मुझे मालूम है |
हवा का इक सिरा तुम भी पकड़ लो,
आज तूफां की साँसों में उलझे इस पहर में,
पीले फूल हटते ही जाने कितने खुदा,
ख़ाक में मिलते देखे हैं हमने इस शहर में|
नाम को अनाम से है मोह जब से हो गया
अविरल को विराम से है मोह जब से हो गया
डूब जाना है नियति ये मान कर बैठे है वो
सूरज को शाम से है मोह जब से हो गया|
ये चतुर् दिशाएं पंथहीन, तिस पर अंतहीन तम का सागर,
हिचकोलें खाती नौका की अब,पतवार सखी केवल तुम हो
बुझी राख के तिलक से शोभित, समर पराजित नीरस नायक
निर्झर बहती आशा का चिर अम्बार सखी केवल तुम हो
उस पार सखी केवल तुम हो|
मैं लिखता हूँ गीत नया रोज़ शब् ढलने पर मगर
कोई आता है अँधेरे में शब्द मिटाता जाता है
जब भी होने लगता विश्वास मुझे इन धागों के सत्याडम्बर पर
अजनबी तब मुझको अपना हर मीत बताता जाता है
भटका खुद भी कुछ कम नहीं अब्दुल, खोज में मेरी लेकिन
जब भी मिलता है मुझे, वो मेरा प्रतिबिम्ब दिखता जाता है|
अब ये कारवां भूले भले तुझे, ये दास्ताँ न बिसरेगी कभी
पिघले शीशे से साफ़ दर्पण में घुला,
पुरानी आँखों का नया धुंआ है चमकता दिखता मुझे
ये ख्वाब-ए-मकाँ जिनसे होकर गुजरेगी हर शब, ये सहर सारी
अब टूटे वक़्त के प्रतिमान ये भी तेरे ज़िक्र से तो क्या,
हर पहर ये मन तेरी यादों की स्याही में डूबा
उतरकर जन्नत से बेरंग लिफाफे पर ....
लेकर पता तेरे गीत-कक्ष का,हर रोज़ इक ख़त लिखता तुझे
इक ख़त लिखता तुझे|
क्यूँ बेवजह यादें सारी इन गीतों से जुड़ जाया करती हैं?
उपमाएं सम पर आ गयी हे सखी आज ह्रदय-रचित सारी,
तुम्हारी पलकें स्वीकृति में क्षण भर भी झुकती क्यों नहीं
आज निकला हूँ खुद की तलाश में सारांश ,भूला हूँ तुम्हे,
मिलूं कभी जो इत्तेफाक से,नज़रें चुरा लेना ज़रूरी तो नहीं|
खो गया सुकूँ कि जिसको ढूंढता हूँ हर घडी
छिन गया जुनूं कि जिससे जूझता था हर पहर
किसी विहग के नेत्र में किन्तु नभ को चूमता
मिटा सका ना ख्वाब को, कोई प्रलय- कोई कहर |
पुर्जे टूटे हैं मेरे मगर ये हवाओं को खबर न हो मौला
सड़क पर बिखरे कांच के टुकड़े कोई चुनने आएगा कहाँ
हादसे इस शहर में अब कोई नयी बात नहीं "सारांश"
हक़ीकत दिखे जो कभी, तो थर्रा से जाते हैं लोग यहाँ |
बूँदें बरसी हैं मृत धरा पर,फिर अरसे के सूखे के बाद,
पत्ते फिर भी तेरी नमी से जाने क्यूँ महरूम हैं,
तेरा नाम भले छिपा हो कहीं इन सिलसिलों की गुफ्तगू में,
जीवन चलते रहने का नाम है, ये अब मुझे मालूम है |
हवा का इक सिरा तुम भी पकड़ लो,
आज तूफां की साँसों में उलझे इस पहर में,
पीले फूल हटते ही जाने कितने खुदा,
ख़ाक में मिलते देखे हैं हमने इस शहर में|
नाम को अनाम से है मोह जब से हो गया
अविरल को विराम से है मोह जब से हो गया
डूब जाना है नियति ये मान कर बैठे है वो
सूरज को शाम से है मोह जब से हो गया|
ये चतुर् दिशाएं पंथहीन, तिस पर अंतहीन तम का सागर,
हिचकोलें खाती नौका की अब,पतवार सखी केवल तुम हो
बुझी राख के तिलक से शोभित, समर पराजित नीरस नायक
निर्झर बहती आशा का चिर अम्बार सखी केवल तुम हो
उस पार सखी केवल तुम हो|
मैं लिखता हूँ गीत नया रोज़ शब् ढलने पर मगर
कोई आता है अँधेरे में शब्द मिटाता जाता है
जब भी होने लगता विश्वास मुझे इन धागों के सत्याडम्बर पर
अजनबी तब मुझको अपना हर मीत बताता जाता है
भटका खुद भी कुछ कम नहीं अब्दुल, खोज में मेरी लेकिन
जब भी मिलता है मुझे, वो मेरा प्रतिबिम्ब दिखता जाता है|
अब ये कारवां भूले भले तुझे, ये दास्ताँ न बिसरेगी कभी
पिघले शीशे से साफ़ दर्पण में घुला,
पुरानी आँखों का नया धुंआ है चमकता दिखता मुझे
ये ख्वाब-ए-मकाँ जिनसे होकर गुजरेगी हर शब, ये सहर सारी
अब टूटे वक़्त के प्रतिमान ये भी तेरे ज़िक्र से तो क्या,
हर पहर ये मन तेरी यादों की स्याही में डूबा
उतरकर जन्नत से बेरंग लिफाफे पर ....
लेकर पता तेरे गीत-कक्ष का,हर रोज़ इक ख़त लिखता तुझे
इक ख़त लिखता तुझे|
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