Tuesday, 31 December 2013

क्या पड़ाव क्या पगबाधा


 क्या पड़ाव क्या पगबाधा,
जोश दोगुना या मन आधा   
क्यों रेत में जलते ये पाँव
क्या ताल-तलैय्या, क्या नीम छाँव
क्यों रुकना साथी के मिलने तक
क्या चलना पैरों के थकने तक
क्यों मौसम बेमौसम बारिश  
क्या कम्बल बरसाती की सोच
क्यों पदचिन्हों का आसरा
और क्या मीलों का फासला 
क्यों सांझ ढले मुड़ना वापस
क्या वाहन तकने को चौकस
क्यों रखनी मिट्टी राह की संजोकर
कीमत से जब भूसी या चोकर
जब राहें टेढ़ी मेढ़ी हों,
जब लकीरें गाढ़ी उकेरी हों,
फिर क्या पड़ाव क्या पगबाधा
हो जोश दोगुना या मन आधा  

अब हार क्या और जीत क्या
ये खेल ख़तम होना कहाँ
क्यों पल-पल भारी फिर सामान हुआ
क्या रह-रह डिगता अब ईमान हुआ
क्यों खाली होता जाता अन्तः
क्या घिसते चप्पल से कील चुभे
ये माथे के मेरे श्रमबिंदु बोझिल
चमके तेज से, या लाचार कहें
क्या मृगतृष्णा, क्या कस्तूरी 
कब चीखा मैं ,कब मौन ज़रूरी 
क्यों आँखें थकती पर नींद नहीं
क्या फिर जगने की उम्मीद नहीं
अब फुंसी रिसती जाती क्यों 
ये रस्सी घिसती जाती क्यों   
जब अश्रु पसीने से मिले 
किनारे अधर है रक्त खिले
जब पलकें राहें तकती उस पार
क्यों मील शिलाएं गिननी इस बार
अब क्या पड़ाव क्या पगबाधा
हो जोश दोगुना या मन आधा 
  



  

I Wish!

Her insane laughter that played with the inelegant locks of her dry hair
The kajal smeared over her face, diluted by the tears shed over the mini-ordeal
Her incessant curiosity that often crossed that bounds of my narrow mindset
Her talking to the birds in the verandah that always kept fresh my hidden fears
Ah! I wish all that’s precious could be captured in time.

Today as I see her hair oiled and combed for the first time, insanity hides humbly in her hair band
Her eyes no more playful as they used to be, her head bowed in either prayer or fear
As no tear drops could wash the stark dark lines, I wonder whether she was spared the ordeal today…
I close my eyes for a while and see her wings opening up, slowly flying over the narrow streets of the village…
I wonder whether she knows the path, I wonder whether she’ll remember me when she touches the sky…

Ah! I wish there weren’t other worlds to sing.   

हजारों ख्वाहिशें


हजारों ख्वाहिशें पंख फैलाए,बिना बताये 
सुरवीन अंधेरों से झांकती,यादों के दामन में लिपटकर 
मुझ से मिलने को बेताब चली आती हैं 
पूरा होने की उम्मीद में संजोया था जिन्हें  

कभी भूला हूँ तो याद बनकर
कभी भटका हूँ तो राह बनकर 
कभी विद्रोह उठे तो बवाल बनकर 
कभी खोया हूँ तो ख्याल बनकर 
कभी नींद में हूँ तो सपना बनकर 
जब आँख खुले तो अपना बनकर 

कभी डूबा हूँ तो तिनका बनकर 
कभी दर्द पुराना दिल का बनकर 
कभी आँखों की रौशनी बनकर 
कभी मीठी सी चाशनी बनकर 
रेगिस्तान में पानी बनकर 
एक भूली हुई कहानी बनकर 

कभी माथे की लकीर बनकर 
कभी गाता हुआ फ़कीर बनकर 
कभी हौंसला कभी संबल बनकर
कड़कते जाड़े में फटा हुआ कम्बल बनकर 
कभी लोभ ,कभी द्वेष बनकर 
हारे हुए मन का क्लेश बनकर 

वीरान पगडंडी पे पदचिन्ह बनकर 
टूटे हुए आईने में प्रतिबिम्ब बनकर 
कभी रूठा हुआ साथी बनकर 
बुझे दीप की बाती बनकर 
मजधार में सूत्रधार बनकर 
हिचकोलों में पतवार बनकर

सब भूल के हंसने का बहाना बनकर 
यूँ ही आने-जाने का फ़साना बनकर
चलते रहने की वजह बनकर 
मन की कुंठाओं पे फतह बनकर 
जो भर ना सके वक़्त के साथ 
उन पुराने ज़ख्मों पर सतह बनकर

अमन की आस बनकर 
अडिग विश्वास बनकर 
कदम लडखडाये तो ज़मीन बनकर 
डगमगाया ज़मीर तो आबिदीन बनकर 
कभी चोट खाया स्वाभिमान बनकर 
वो छोटा सा अरमान बनकर 

हजारों ख्वाहिशें पंख फैलाए,बिना बताये 
सुरवीन अंधेरों से झांकती,यादों के दामन में लिपटकर 
मुझ से मिलने को बेताब चली आती हैं
अधूरा रहकर खुद, मुझे पूरा करती हैं  
पूरा होने की उम्मीद में संजोया था जिन्हें  

   

गीत टूटे हुए- 1

गीत क्यूँ किसी ख़ुशी में, किसी उदासी के मंज़र में अब,
क्यूँ बेवजह यादें सारी इन गीतों से जुड़ जाया करती हैं?

उपमाएं सम पर आ गयी हे सखी आज ह्रदय-रचित सारी,
तुम्हारी पलकें स्वीकृति में क्षण भर भी झुकती क्यों नहीं
आज निकला हूँ खुद की तलाश में सारांश ,भूला हूँ तुम्हे,
मिलूं कभी जो इत्तेफाक से,नज़रें चुरा लेना ज़रूरी तो नहीं|  

खो गया सुकूँ कि जिसको ढूंढता हूँ हर घडी 
छिन गया जुनूं कि जिससे जूझता था हर पहर 
किसी विहग के नेत्र में किन्तु नभ को चूमता 
मिटा सका ना ख्वाब को, कोई प्रलय- कोई कहर |

पुर्जे टूटे हैं मेरे मगर ये हवाओं को खबर न हो मौला 
सड़क पर बिखरे कांच के टुकड़े कोई चुनने आएगा कहाँ  
हादसे इस शहर में अब कोई नयी बात नहीं "सारांश" 
हक़ीकत दिखे जो कभी, तो थर्रा से जाते हैं लोग यहाँ |   

बूँदें बरसी हैं मृत धरा पर,फिर अरसे के सूखे के बाद,
पत्ते फिर भी तेरी नमी से जाने क्यूँ महरूम हैं,
तेरा नाम भले छिपा हो कहीं इन सिलसिलों की गुफ्तगू में,
जीवन चलते रहने का नाम है, ये अब मुझे मालूम है |

हवा का इक सिरा तुम भी पकड़ लो, 
आज तूफां की साँसों में उलझे इस पहर में,
पीले फूल हटते ही जाने कितने खुदा, 
ख़ाक में मिलते देखे हैं हमने इस शहर में|

नाम को अनाम से है मोह जब से हो गया  
अविरल को विराम से है मोह जब से हो गया   
डूब जाना है नियति ये मान कर बैठे है वो  
सूरज को शाम से है मोह जब से हो गया|  

ये चतुर् दिशाएं पंथहीन, तिस पर अंतहीन तम का सागर,
हिचकोलें खाती नौका की अब,पतवार सखी केवल तुम हो 
बुझी राख के तिलक से शोभित, समर पराजित नीरस नायक
निर्झर बहती आशा का चिर अम्बार सखी केवल तुम हो
उस पार सखी केवल तुम हो|

मैं लिखता हूँ गीत नया रोज़ शब् ढलने पर मगर
कोई आता है अँधेरे में शब्द मिटाता जाता है 
जब भी होने लगता विश्वास मुझे इन धागों के सत्याडम्बर पर 
अजनबी तब मुझको अपना हर मीत बताता जाता है 
भटका खुद भी कुछ कम नहीं अब्दुल, खोज में मेरी लेकिन
जब भी मिलता है मुझे, वो मेरा प्रतिबिम्ब दिखता जाता है|

अब ये कारवां भूले भले तुझे, ये दास्ताँ न बिसरेगी कभी 
पिघले शीशे से साफ़ दर्पण में घुला,
पुरानी आँखों का नया धुंआ है चमकता दिखता मुझे
ये ख्वाब-ए-मकाँ जिनसे होकर गुजरेगी हर शब, ये सहर सारी
अब टूटे वक़्त के प्रतिमान ये भी तेरे ज़िक्र से तो क्या,
हर पहर ये मन तेरी यादों की स्याही में डूबा 
उतरकर जन्नत से बेरंग लिफाफे पर ....
लेकर पता तेरे गीत-कक्ष का,हर रोज़ इक ख़त लिखता तुझे 
इक ख़त लिखता तुझे|   



गीत टूटे हुए- 2

आज तुम भी कह दो कोई तालुक नहीं है मुझसे तुम्हारा
शहर में हर अजनबी से हंसना बोलना हो गया है मेरा |

इक शर्त थी इलाही तेरी, वही बेशर्त निभा रहा हूँ
छलनी है सीना मगर, मैं गीत गा रहा हूँ
वादा था बन्दे से तेरे, या जिद थी कभी न गाने की.. अब याद नहीं
जुबां पे कायम हूँ मगर, ईमां से जा रहा हूँ |

इक बार उठाये थे कुछ सवाल जो काफिरों ने नीयत पर अब्दुल की 
खुदा लिख रखा है जवाब मेरी ज़मीर के पन्नों पर हर रोज़ बाकायदा 
तुम कहते हो कभी लफ़्ज़ों में किया नहीं बयां मैंने पाक्नामा उसका 
जुबां तो सुनो मेरी जो उर्दू हो गयी,महज़ उस दीवाने का नाम लेने से|

कितनी सिमटी हैं ये प्रेरणा, और कितना ऊंचा है आसमा मेरा
कितनी धुंधली हैं ये आखें मेरी, कितना विस्तृत है ये जहाँ मेरा 
चलो बिना कागज़ कलम के आज एक छंद बनायें,
अनंत की खोज में उड़ें, आओ आज अनंत हो जाएँ| 

क्या कहिये इस नाजो-नजाकत को, इस चकाचौंध के दौर को 
आँखों की सुर्ख़ियों को क्या कहिये, क्या कहिये अदबो-अदा के ठौर को 
कहिये माफ़ी, कि हम तो बेबस कुदरत से हुआ करते हैं, 
क्या कीजिये हुज़ूर, गीत तो हम आज भी, आखें मूंदें ही सुना करते हैं |

कुछ तो राबता था तेरी हस्ती से मेरा,
तू जो मिटा है, तो बाकी हम भी हैं कहाँ,
तू छूकर देख कितनी झुलसी है धरती मेरी इस सुबह ,
उगते सूरज के टुकड़े जो धुल में मिले हैं आज यहाँ|

कराया इंतज़ार सारी महफ़िल को हमने, बस इक तुम्हारे इंतज़ार में
इतना तो कह दो इक दफे, कि तुम मेरे मेरे बुलाने से आये 
क्या मालूम तुम्हे, कल दिवाली थी, कितनी रौनक थी मोहल्ले में,
तुमने दीदार न दिया, तो हमने दीये नहीं जलाये|

इक रोज़ भूल कर देखो खामियां मेरी, मेरे वाशिंदों
मैं वतन तुम्हारा आज तुम्हे पुकारता हूँ इक टूटे किले से 
गाओ गीत कि आज भी बुझी नहीं हैं लौ प्रेम की 
मनाओ जश्न कि सोने की चिड़िया ,ह्रदय से आज भी आज़ाद है | 

इक पथ ये निर्मम काटों भरा, दूजी ये तुम्हारी बेरुखी 
धीमा ज़हर निगलता जिजीविषा, उस पर पथ्य की सुविधा नहीं 
नेपथ्य में जिससे मिले, हर शख्स अपना सा लगा
मंच ने आँखें यूँ बदलीं , प्रतिबिम्ब भी था अजनबी
पर्दा गिरा अब दृश्य ओझल, भू छू गए चिर स्वप्न-पर्वत,
अब प्रीत का भ्रम ना रहा, ना सत्य की दुविधा रही|

आओ सुलझा दो मुझे,
फिर से जाने लगी है जिजीविषा लौट कर पुराने टापू पर,
ये अंतर्मन के दीमक फिर से खाने लगे हैं भीतर के पन्ने 
मायने खोने लगी हैं फिर प्रेरणाएं
आओ बताओ मुझे राहें और भी हैं 
आओ रोक लो मुझे या चलने का हौंसला दे दो 
बताओ मुझे ये सब सुखद अंत के अनुक्रम हैं सारे,
कोई वजह दे दो फिर से, 
आओ सपनों का जहाँ कोई, फिर से दिखला दो मुझे,
आओ सुलझा दो मुझे।

Strings of Vivacity-1

Did you drink poison?

Did you drink poison last night, my dear?
I can see your eyes gradually losing their sheen..
Your smile covers up a great deal the inner commotion that is,
albeit the signs of suffocation on your face,
talk to me like a close friend does..
yes the way you did long ago in the springs those were!
The part of you that reflected me is rotting, dying every moment..
We've parted ways, though the memories bloom in the pieces of a broken vase.. 
As this night passes by ,taking toll on all our dreams
and I lose you to the drugs that have kept me alive,
I'll let the shards today pierce me, make me bleed to death...
but death, as you know, my vivacity, is the last thing I fear..
Lest I should close my eyes and die unfulfilled, let me know
Did you drink poison last night, my dear?

Strings of Vivacity-2

The Last Gamble

Tell me there is more to it than my eyes see, 
and today I'll forgive you for the hyperbole
Tell me I'll come out alive of this play,
I have got to play another role..
Tell me this world is a beautiful place,
and there is more to it than this frantic race,
I would take as gospel truth anything fancy you might say,
But My dear, why envelops us all, this eerie silence today?

Waited for this long I have,
drawing parallel lines on spotless sheets
Downplayed myself to the end, 
just to catch a glimpse of my lost vivacity
Walk a mile for me, or walk away, I am at peace
I just played the last gamble of my life.

अब्दुल दीवाना

कितने ख़्वाबों में खोता,
कितनी रातें न सोता,
कितनी बातों पे रोता अब्दुल दीवाना,

उठा कर सर इबादत में आसमां की ओर,
हंस पड़ा वो बेवजह पागलों की तरह,
बरसी बूँद बनकर फकीरी की शोहरतें उस पर,
हँसता चल पड़ा वो आवारा बादलों की तरह,

कभी हंसा मस्जिद के सूनेपन में शह खोजती नमाज़ पर,
हंसा कभी वो मंदिर में सदियों से सोयी मूरतों पर,
कभी फितूर पे हंसा अपने, कभी दस्तूर पर दुनिया के हंसा, 
तो कभी चाँद को अपना कहते, अपनी जैसी सूरतों पर 

वो आधे चाँद के गुरूर पर भी हंसा, 
और हंसा अकेली रात के रोने पर, 
कभी जुगनुओं के टिमटिमाने पे हंसा,
तो कभी टूटे तारों के खोने पर,

कभी हंसा वो सुन्दर कल के सपने पर,
तो कभी रंजिश में बीते सालों पर हंसा,
कभी हंसा दिलेर शायर वो खुद पर,
तो कभी अपनी हंसी उड़ाने वालों पर हंसा

Parallel Lines


She woke up, rubbing her eyes
another dream lost, forgotten
On the doorsteps lay a postcard
wet from whole night's dew 
lending moisture to her eyes
She stooped in excitement, 
her spects broken
Another sense impaired, 
Another reason lost
smiling to herself like a madcap,
picking up remains of last night's ecstasy,
fisting them together in her torn stole, 
In the backdrop, a set of parallel lines....
on an endless, meaningless journey
stared at each other in helplessness.

पुरानी किताब


दीमक के चंगुल में फंसी, 
पुरखों की पुरानी अलमारी को खोला इक रोज़
तो मधुमख्खियों के छत्तों,  
और धूल मिट्टी के आशियाने से बढ़कर भी चीज़ें 
थी उसमें बंद अरसे से
ये कुछ-कुछ समझा,कुछ जाना मैंने ,
पर कुछ समझ के परे भी सौगातें थी उसमें छुपी
मेरे इंतज़ार में मानो सदियों से बूढी होती   
उन फटे पन्नों से जाने क्या रिश्ता था मेरा 
पुर्जों को तह लगाकर सलीके से,   
क्यों रखा था बेबात किसी ने बरसों तक संजोकर    
उस पुरानी किताब में ऐसा क्या ख़ास छिपा था
जो जिंदा रहा समय से परे, 
वो वक़्त की परतों से पीले हुए पन्ने 
क्यूँ मुझे बंधक कर रहे थे 
अकारण ही अपने गहरे तिलिस्म के जालों में

खैर,वो दिन कैसे गुज़रे उस किताब के साथ
अब कुछ ख़ास याद नहीं आता मुझे   
बस कुछ धुँधली सी परछाइयां जब-तब 
उभर आती हैं मेरे चरित्र के पहलुओं में  
कुछ पंक्तियाँ यूँ ही जीवंत हो उठती हैं
उस पुरानी किताब के फटे पन्नों से
कभी रामधुन, कभी कबीर के दोहे 
कभी मीरा,खुसरो का दीवानापन याद आता है
वो अमर हुए अशफ़ाक और राम  
के बोलों को मन दोहराता है
वो अर्थी पर लेटा किसान
यूँ ही झकझोर जाता मुझे 
वो गांधी की टूटी छड़ी 
मन देख सच में घबराता है

पर फिर देख दिशा और भेड़चाल 
मैं फिर से काबिल हो जाता हूँ     
अरे ये सब तो बस मनोवेग हैं पल दो पल के 
मिथ्या पहलू मात्र हैं भाव-विह्वल मन के 
वो पुरानी किताब तो आज भी उसी अलमारी में 
बंद रखी है,
मैंने उसे पढ़ा भी या नहीं कभी क्या पता,
शायद धीरे-धीरे वो किस्से-कहानी 
तुडकर-मुड़कर खुद ही उन पन्नों में छप आये हों 
किसी सपने से हकीकत की कड़ियाँ 
ज्यों अनायास ही जुडती सी चली आयीं हों 
वो फटे पन्ने इतने पुराने--ज़रूर किसी दिन 
ख्वाब में ही देखे होंगे मैंने |