Wednesday, 16 January 2013

लापता



लापता

जाने क्या ढूंढता फिरता है जुगनुओं में रात भर
जिसे लानी है रौशनी वो खुद  है अंधेरों से घिरा हुआ
जाने कैसी उल्झनें भटकाती हैं नाहक ही उसे
मन उसका जाने लगता क्यों नहीं
अब बेबाक लक्ष्य का पीछा करने में
या भूल गया है शायद तट से दूर होकर
वो माझी को दिया वचन पुराना
एक ओस की बूँद से  जो  खुश था कभी
क्यों लहरों में खोया है लेकर प्यास का बहाना
उसे खबर नहीं आसमान की या ज़मीन से लगाव गहरा है
तय करना था मीलों का सफ़र कभी जिसे
पहले मोड़ को मंजिल मानकर ठहरा है
वो दिखाता नहीं कुछ आँखों के दर्पण पर
या फर्क पड़ता नहीं उसे अब रस्मो-रिवायात से
वो नयेपन की बौराती चकाचौंध में धुँधलाया सितारा
जाने नाराज़ है खुद से या सारी कायनात से
मुझसे पूछता है वो नायक मेरी गढ़ी कहानियों-कल्पनाओं का,
जब मुसाफिर हूँ मैं
तो मेरे भटकने में तुझे हर्ज़ क्या.. मुझे परहेज़ कैसा
मैं कहता हूँ अंतरे से अपने-- 
तुझे जहाँ देखूँ तू मेरे तो पास है मगर
तेरी तलाश में गुमसुम यहाँ हर ज़र्रा है,
सन्नाटा छाया है ऐसे मानो हो कोई खंडहर  
खैर यूँ तो फ़िक्र तेरी है मुझे, परवाह सारे आलम की नहीं
पर फिर भी रह-रह घबराता हूँ
शहर में फैली अफवाह को सुनकर
  तू खुद से भी कहता है अब ये सच या नहीं किसे पता है   
पर कहने लगे हैं तेरी बस्ती-कूचे-मोहल्ले में लोग सारे ...
तू बरसों से गुम है यहाँ से...सालों से  लापता है


  
 


6 comments:

  1. ""darpan "" again ...;-)
    nice one....

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  2. thanxxx geetika! for reading and appreciating its depth :)

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  3. Bhai such depth,such truth,out-of-the-box,analytical thinking.... Hats Off man.

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  4. thanxx nakul :) your comment made me read it one more time ;)

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