कहानी
कुछ
उड़े हुए रंगों
और
झड़ी हुई पुट्टी के बीच
मैं
गाँव के ईटों की नंगी दीवार
हूँ
आज
भी खड़ी हूँ सीना ताने
मन
में कितने सूखे तालाब-कुँओं
का पानी लेकर
मिटटी
की खुशबू में खोयी सौंधी सी
कहानी लेकर
वो
होली वो दिवाली
वो
खुशियाँ वो बदहाली
सब
मेरे ही इर्द गिर्द जैसे
चहल
पहल बनाये रखते थे
वो
गाँव के मेले में घर का खालीपन
भी
मैंने
भीगी आँखों से देखा है
सुनी
है आवाज़ ख़ामोशी की भी मैंने
कान खोलकर
हाँ
,कान
तो हमेशा खुले थे मेरे
जब
दादी माँ की आधी कहानी पे ही
सो
जाता था राजकुमार
बाकी
का किस्सा मैं ही सुनती थी
चुपके-चुपके
चाव से गालों पे हाथ रखकर
मैंने
सब मौसम यूँ ही गुज़ार दिए
उन
परियों की यादें टटोलकर-दोहराकर
रखा
था उन्हें बरसों तक सीने से
लगाकर
उन
कहानियों के सब किरदार लेकिन
होने
लगे धीरे-धीरे
दृष्टि से ओझल
बड़े
लल्ला शहर में बाबू बन गए
फिर
तीज-त्योहारों
पर ही
सजती
थी देहरी घर की
छुट्टियाँ
गिनती थी मैं भी महीनों तक
पर
जाने क्यूँ आते ही चली जाती
थीं
वो
कड़ियाँ जैसे हों पल भर की
अब
बड़ा हो गया राजकुमार भी
परियों
की हकीकत जानने जितना
दादी
माँ को अब वह सुनाता
बातें
शहर के सिनेमा-सर्कस
की
कभी
दिखाता अपनी आँखों से
वो
चमक दमक की दुनिया
पर
अब आँखें बूढी हो चली थीं उनकी
भी
धीरे-धीरे
यादें भी जाने लगीं
फिर
शहर से चिठ्ठी भी आती थी
केवल
ईद दिवाली पे
मैं
भी चुपके से रोई थी
कभी
भरे-पूरे
रहने वाले आँगन की कंगाली पे
फिर
कुछ दृश्य और भी देखे रुक्सत
के,
बिदाई
के
पर
कहूं कैसे वो मेरे साथी दीवारों
की गूँज थी कैसी
एक
अरसा खत्म होने की विरह
आखरी
बार सजे सँवरे खंडहर के जैसी
और
सालों के वीरान सन्नाटे के
बाद फिर इक घरौंदा
यहाँ
बसने को है
फिर
कोई कहानी लिखी जायेगी मेरी
ईटों पर बेपरवाह होकर
उसी
आँगन में और मेरे ही इर्द गिर्द
फिर
से बस जायेंगे लोग अनजाने
कुछ
उड़े हुए रंगों
और
झड़ी हुई पुट्टी के बीच
मैं
गाँव के ईटों की नंगी दीवार
हूँ
आज
भी खड़ी हूँ सीना ताने
Well when one starts to personify a wall,i consider that is where he changes from an poet to an artist.
ReplyDeletethanx for the compliment nakul :)
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