Friday, 4 January 2013

वो ग़ज़ल


वो ग़ज़ल
इक शाम इक ग़ज़ल
तेरी आँखों में देखी खूबसूरत बड़ी,
मैंने पौ फटते ही उसे होठों से छू लिया
बस दिल में वही गीत लिए
ख्वाबों में एक मीत लिए
मैं एक पगडंडी पर चल पड़ा
बस चल पड़ा धुन में उसी ग़ज़ल की
अब ज़हन में कोई शहर न था
न राहें न मंजिल
कोई मील का पत्थर न था
अंजाना था साहिल ,शायद टीस छुपी थी लहर में
जैसे टूटा हो गाँव ,पीछे छूटा जो शहर
किसी रोज़ बरपते कहर में  


राहों में अब खुशबू थी बांवरी
जैसे राधा हो सांवरे के इंतज़ार में
या गाता हो मस्ती में खुसरो
पीर की किसी मज़ार में
अब धुन ग़ज़ल की पाक थी बड़ी
जैसे बजती हो मीरा की साज़ में
या जली हो हर रोज़ जैसे
वो पांच वक़्त की नमाज़ में
अब तेरी ग़ज़ल में खोकर
उस खुशबू को पीता रहा
अब दूर तुझसे डूबकर
तेरे गीत को जीता रहा

फिर इक रोज़ हम मिले
उस शहर की कब्र पर
तेरी आँखों में कोई ग़ज़ल
कोई गीत ना था
फिर जीत कर वो खुशबू सौंधी
मैं हार गया दुनिया सारी
उस कब्र पर वो फातहा तेरा
अब उस ग़ज़ल सा मालूम होता था
जिस ग़ज़ल का अक्स मेरे ज़हन से
अब धीरे-धीरे खोता था......
फिर मैं भूल गया वो कहानी ,
सोच कर वो महज़ पतझड़ का मौसम था
पर याद है मुझे आज भी ...
तेरी सूनी आँखों से वो कब्रिस्तान रौशन था
वो कब्रिस्तान रौशन था |   

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