लापता
जाने क्या ढूंढता फिरता है जुगनुओं में रात भर
जिसे लानी है रौशनी वो खुद है अंधेरों से घिरा हुआ
जाने कैसी उल्झनें भटकाती हैं नाहक ही उसे
मन उसका जाने लगता क्यों नहीं
अब बेबाक लक्ष्य का पीछा करने में
या भूल गया है शायद तट से दूर होकर
वो माझी को दिया वचन पुराना
एक ओस की बूँद से जो खुश था कभी
क्यों लहरों में खोया है लेकर प्यास का बहाना
उसे खबर नहीं आसमान की या ज़मीन से लगाव गहरा है
तय करना था मीलों का सफ़र कभी जिसे
पहले मोड़ को मंजिल मानकर ठहरा है
वो दिखाता नहीं कुछ आँखों के दर्पण पर
या फर्क पड़ता नहीं उसे अब रस्मो-रिवायात से
वो नयेपन की बौराती चकाचौंध में धुँधलाया सितारा
जाने नाराज़ है खुद से या सारी कायनात से
मुझसे पूछता है वो नायक मेरी गढ़ी कहानियों-कल्पनाओं का,
जब मुसाफिर हूँ मैं
जब मुसाफिर हूँ मैं
तो मेरे भटकने में तुझे हर्ज़ क्या.. मुझे परहेज़ कैसा
मैं कहता हूँ अंतरे से अपने--
तुझे जहाँ देखूँ तू मेरे तो पास है मगर
तुझे जहाँ देखूँ तू मेरे तो पास है मगर
तेरी तलाश में गुमसुम यहाँ हर ज़र्रा है,
सन्नाटा छाया है ऐसे मानो हो कोई खंडहर
खैर यूँ तो फ़िक्र तेरी है मुझे, परवाह सारे आलम की नहीं
पर फिर भी रह-रह घबराता हूँ
शहर में फैली अफवाह को सुनकर
शहर में फैली अफवाह को सुनकर
तू खुद से भी कहता है अब ये सच या नहीं किसे पता है
पर कहने लगे हैं तेरी बस्ती-कूचे-मोहल्ले में लोग सारे ...
तू बरसों से गुम है यहाँ से...सालों से लापता है
""darpan "" again ...;-)
ReplyDeletenice one....
thanx rashesh :)
ReplyDeleteand this one's way deep! :)
ReplyDeletethanxxx geetika! for reading and appreciating its depth :)
ReplyDeleteBhai such depth,such truth,out-of-the-box,analytical thinking.... Hats Off man.
ReplyDeletethanxx nakul :) your comment made me read it one more time ;)
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