Thursday, 10 January 2013

दर्पण


दर्पण


दर्पण जो सच कह जाता

सूरत से सीरत का

दर्पन जो पार पाता

मंदिर की मूरत का

दर्पण जो देख पाता

अंधेरों को चीर कर

दर्पन जो आंसू बहाता

दुखियों की पीर पर

दर्पण जो भेद लाता

मन की ग्रंथियों से चुराकर

दर्पण जो मुस्कुराता

पुराने प्रतिबिम्बों को भुलाकर

दर्पण जो निराशा को

आशा का चित्र बताता

दर्पण जो टूटे हुए को

बिखरने से बचाता

दर्पण जो माप लेता

गहराई हर तरंग भाव की

दर्पण जो महसूस करता

कुंठा मन के हर घाव की

दर्पण जो आंखों के नीचे

की झाईं छुपा देता

दर्पण जो भूली यादों

कि परछायीं मिटा देता

दर्पण जो मौके बेमौके छायाओं में

कुछ झल्कियाँ अपनी भी डाल जाता

कुछ सुनता मेरी दर्प-दुविधा

कुछ अपना हाल बताता


दर्पण जो कोरे सच का

अंधा अनुयायी ना होता

दर्पण वो जो दर्पित का

हमकदम हुमराही ना होता

दर्पण होता गर कुछ पेड़ों की हरियाली सा   

कुछ आसमान सा विस्तार लिये

कुछ सूझ बूझ बुजुर्गों की

कुछ ममता जैसा प्यार लिये

ऐसा दर्पण मन तुझ को अर्पण

मैं करता ,सुकून पाता

सारे भ्रम मिट जाते  

छायाओं में छुपे

खुद का सच तुझ में दिखता मुझे

या खुदा का प्रतिबिम्ब नज़र आता

हाँ खुदा का प्रतिबिम्ब नज़र आता


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