दर्पण
दर्पण
दर्पण जो सच कह जाता
सूरत से सीरत का
दर्पन जो पार पाता
मंदिर की मूरत का
दर्पण जो देख पाता
अंधेरों को चीर कर
दर्पन जो आंसू बहाता
दुखियों की पीर पर
दर्पण जो भेद लाता
मन की ग्रंथियों से चुराकर
दर्पण जो मुस्कुराता
पुराने प्रतिबिम्बों को भुलाकर
दर्पण जो निराशा को
आशा का चित्र बताता
दर्पण जो टूटे हुए को
बिखरने से बचाता
दर्पण जो माप लेता
गहराई हर तरंग भाव की
दर्पण जो महसूस करता
कुंठा मन के हर घाव की
दर्पण जो आंखों के नीचे
की झाईं छुपा देता
दर्पण जो भूली यादों
कि परछायीं मिटा देता
दर्पण जो मौके बेमौके छायाओं में
कुछ झल्कियाँ अपनी भी डाल जाता
कुछ सुनता मेरी दर्प-दुविधा
कुछ अपना हाल बताता
दर्पण जो कोरे सच का
अंधा अनुयायी ना होता
दर्पण वो जो दर्पित का
हमकदम हुमराही ना होता
दर्पण होता गर कुछ पेड़ों की हरियाली सा
कुछ आसमान सा विस्तार लिये
कुछ सूझ बूझ बुजुर्गों की
कुछ ममता जैसा प्यार लिये
ऐसा दर्पण मन तुझ को अर्पण
मैं करता ,सुकून पाता
सारे भ्रम मिट जाते
छायाओं में छुपे
खुद का सच तुझ में दिखता मुझे
या खुदा का प्रतिबिम्ब नज़र आता
हाँ खुदा का प्रतिबिम्ब नज़र आता
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