Wednesday, 23 January 2013

अंतरा


             अंतरा 

तुम भूल गए गाकर गीत अपना
,मैं बरसों से मुखड़े पे अटका था 
तराशता हर अलफ़ाज़ को,तलाशता हर 
राग में तेरी आवाज़ को 
मैं अर्थ गहरा ढूंढता तेरे सादे से 
मुखड़े में 
कभी ख़ुशी फूट पड़ती ,कभी मोती झरते 
मेरे दुखड़े में 
कभी नील सा नीला, कभी नीर सा गीला 
कभी छम-छम सा संगीत बजे 
कभी डूबता,कभी नवोदय 
कभी प्रेरणा नाद बजे 
सब सुन्दर सब सौमिल था 
सब चकाचौंध कविताओं सा 
पर सीधा सादा मुखड़ा वो 
था कहाँ तुल्य उपमाओं का 
मन रखने को, सच ढकने को 
मैं कह दूं गाथाएँ लेकिन 
वो कृष्णवर्ण वो ज्योतिरहित 
था सार सभी विपदाओं का 
जब भूल गए तुम गाकर गीत अपना 
मैं जाने क्यूँ मुखड़े पे अटका था 
नीरस था मन ये सोच मगन 
धुंधली-संकरी गलियों में भटका था 

मैं हारा,घर को लौट चला 
सोचा खैर हुई,अब टली बला
संध्या भी अब डाले डेरा 
कहती थी हुआ ख़तम फेरा 
पर तभी बह चली शीत पवन 
लाई वादी से मोहक संदेसा 
तभी गूँज उठा इकतारा कहीं 
धुन सुनाता कुछ भूली बिसरी यादों की 
हाँ,वो अंतरा था तेरे गीत का 
हाँ,वही खुशबू जिसके लिए भटका था,
टटोला था,मटोला था मुखड़े को कभी 
अब सारी उपमाएं छोटी थीं 
फीकी थीं उस अंतरे के लिए 
तेरा वादा फिर मिलेंगे,अब सच होता दिखता था 
तेरा अंतरा तेरा सच है 
तेरा मुखड़ा इक भ्रम 
तुम भूल गए गाकर गीत अपना 
पर मैंने अंतरा तुम्हारा अपने अंतर् में बसाया है 
कभी फुर्सत हो तो दबे पाँव दिल में चले आना|    
      

4 comments:

  1. तेरा अंतरा तेरा सच है
    तेरा मुखड़ा इक भ्रम..
    बढ़िया है बे!!

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