Friday, 19 May 2017

ख़ाली जगहें

ख़ाली जगहें
जो कि अब बची हैं बहुत कम
धीरे-धीरे भरने से दूर एकाकी में दम तोड़ती हुईं
बहुत बहुत अकेली मिलेगी एक ख़ाली जगह 
जंगली फूल की तरह 
जिसे किसी का इंतेज़ार नहीं
क्या सच में?
एक कँटीला फूल 
तुम कहोगे 
कोई हंस पड़ेगा 
कोई चुप रहेगा 
एक ख़ाली जगह 
बारिश में भीगे खप्पर की तरह 
टूट पड़ेगी तुम पर 
बच गए तो भी बे-आसरे तुम
एक ख़ाली जगह है गीले तिरपाल के नीचे 
एक जगह लहराते दुपट्टे से घेरी हुई 
धूप में गोलाकार एक आकृति
एक मठ के ऊपर से उड़ते हुए कबूतर 
अनचाहे ही छोड़ते हुए पहलू में 
संग ली गयी साँस 
एक ख़ाली जगह यूँ ही 
मोरपंख उड़ता हुआ 
फटा-पुराना कैलेंडर
आलाप उठता हुआ 
होश से परे
बेहोशी की जगह एक 
बाँधा हुआ बिस्तर
रेला-ठेला हाथ-गाड़ी 
धक्के से सड़क नापती
एक क़दम-दो-मील-तीन समुद्र
बाढ़ की तरह चल निकली है जगह एक
भागो-भागो छुप जाओ 
अब छुपने को कोई जगह नहीं है 
मिलने को एक जगह थी 
भर गयी 
नींद से छूटे हुए
वेल्वेट के पॉर्च्मेंट में 
कोने-कोने दीवारों के
चींटियों के बिल
झींगूरों के बसेरे
लेकर बंद नलों तक 
ख़ाली बर्तन सूखे होंठ 
वो पिघल गया
देखो वो पिघल गया 
धूप जगह घेरती तो लिखा होता  
देखो धूप निकल आयी उसकी जगह 
एक दोपहरी 
मकान के तीसरे तल्ले में गंगा आरती पढ़ी जाती 
शाम को सूखे का शोक 
एक धागा जोड़कर 
सुई में पिरोया हुआ 
नज़र भर अँधेरा फलाँगकर
उड़ा-उड़ा-उड़ा 
छत से टकरा गया  
एक जगह टकराने की भी 
लिखा जा सकता दुःख 
लिखी गयी जगह
हँसी हवा ख़याल पंख 
पुराने रूपक पुराने कवि 
बैठकी मज़ार नाचघर 
एक-एक कर तब्दील होते गुलाब के फूलों में
वहीं से आयी होंगी चिट्ठियाँ 
जहाँ से आते हैं ख़्वाब
जहाँ से आते नहीं पंछी 
जिस तरफ़ दुआ हवा के भार से दबी
चली जाती 
नाम-अनाम प्रेम 
चले आओ चले आओ 
पुकारते ज़बरन बधे घंट 
किस बिधि पाऊँ तुमको घनश्याम
वो आता होगा
होगा आता 
आटा गीला 
पलस्टर उखड़ा हुआ 
दीवार में बन रही जगह दूब के उग आने की|

Friday, 10 March 2017

अंतहीन कविता - १

मुझे बहुत कुछ कहना था 
मैं देर तक चुप रहा 
मैंने सुना था कि कविता एक बीमारी है 
जो अपनी मियाद पूरी करके चली जाती है 
चली जाती है से मुझे संतोष नहीं हुआ 
और मैं भी चला गया कविता के पीछे-पीछे 
मैंने देखा उसे उथले एक ताल में चाँद की परछायीं बने हुए 
एक बादल का नाम याद करने की कोशिश में 
डुबोए हुए दस्तावाजों पर मछलियों के ख़व्वाबों के पैटर्न उतारते हुए 
कविता सर्द पानी में ठिठुरती
चाँद की परछायीं कविता 

मुझे बहुत कुछ कहना था 
मुझे आख़िरकार चुप हो जाना था 
चली जाती है कविता मैंने सुना था 
ख़्वाबों के पैटर्न उतारती
कविता जैसी एक कविता 
मुझे कोई रोक लेता तो अच्छा था 
मेरे चले जाने से पहले मेरी मियाद पूरी होती 
और मैं कहता अब मुझे चले जाना चाहिए 
उथले ताल में चाँद की परछायीं - कविता 

कविता जो नदी भी हो सकती थी 
जिसे मेरा सागर होना था
आसमान में जिसकी परछायीं देखकर मैं समझता 
अब मैं गया हूँ यहाँ -
चौखट को, दरवाज़ों को पहचानता हूँ 
पहचानता हूँ छूकर 
जिस तरह बिन छुए पहचानता हूँ छुआ जाना
मेरी हथेली में बंद गोरय्या का बच्चा
सुरक्षित अंतर किसी नए कवि का 
हथेली के खुलने से रेखाएँ उड़ जाएँगी 
कविता चली जाएगी 
नदी से एक उथला ताल होने की ओर 
मुझे बहुत कुछ कहना था 
आख़िरकार चुप हो जाएगी चिड़िया मैं जानता था  

धुल जाएँगी वसंत की रेखाएँ

Monday, 2 January 2017

चिरमित्रा -२

संगिनी! कितने रहस्य हैं तेरी आँखों में!
कितनी नदियाँ, कितने द्वीप 
असंख्य पक्षी और उनके घोंसले
अंधेर चुप्पी और साँझ-संगीत
खिड़की के आकार में आकाश की छाया   
एक आदमकद जगह तुझमें ख़ाली है
तुझे मालूम है?

प्रकृति तू!
मैं अदना मनुज 
मैं तेरा हूँ?
तू कौन है?

समुद्र! मेरी व्यथा सुन 
सुन समुद्र, मेरा चीतकार सुन 
बाँट ले मुझसे मेरा महान दुःख 
मेरी व्यथा तुझे मामूली मालूम होती है?a
मैं जा रहा हूँ अनंत!
फिर तेरे तट पर चोटिल होने नहीं आऊँगा

ढलती बायर में मख़मली तेरी साँस से 
छूटकर अतल की ओर गिरी जीवन-औषधि 
अतल के तल में तूने ज़रूर कोई तिलिस्म बाँध रखा होगा 
तू मिलेगी, प्राणिनी

मैं तेरी भाषा से अनुवाद करता हूँ 
और पाता हूँ कि अबूझ सब चिन्ह जान लिए हैं मैंने 
तृष्णा- बौराती जो थी अब बौराती नहीं 
भीतर वही शीत, कँपाती, सिरहाती- अज्ञात भय की सहचरा   
दीवार की शक्ल उम्मीद का पहलू है?

एक नए रस की तलाश में 
जंगल के हृदय में हम भटकते हैं 
पत्तों से टपकती बूँद का तेरे गाल पर बोसा 
प्रीत का नया रूपक बन सकेगा?

साँझ भी इस तरह बज सकती है क्या कभी 
जिस तरह छिड़ गया हूँ मैं इस पहर
और दौड़ रहा हूँ हताश 
ये किस ओर, किर छोर, किस दिशा से बह निकला है समुद्र 
अपनी अस्ति कहाँ छुपाऊँ
तू ही बता
बता 

वो जो गा रहा है, मुझे नहीं जानता 
मैं जो सुन रहा हूँ, समझता हूँ गाता है आकाश 
सखी! पदचिंह तेरे उठ गए हैं धरा से 
तैर रहे हैं हवा पर तेरी साँस के फूल 
बज रहे हैं पेड़, खुल रही हैं जड़ों की गाँठें  
समूचा कलरव उड़ गया है उस ओर जिधर झंकार उठी है 
तूने डूबते सूरज में बाँध दिया हो इकतारा कोई 

मध्यरात्रि में विदा का गीत 
ट्यूलिप फूल की कौंधती गंध बन जाता है  
दीवार पर लटके चित्रों का कोलाहल 
जो दिन भर की चुप्पी से छिपा रहता है 
यकायक मुखर हो उठता है 
एक भूली हुई बात भूल जाती है फिर से मुझे

१०
सहेजकर रखो 
बादल, फूल, पगडंडी 
नमी, बेबाक़ी, सपने 
खाली जगहें सहेजकर रखो 
जब तक मुमकिन हो 

११
हँसी अगर फ़लसफ़ा होता 
तो मैं कहता कोई किताब सुझाओ इस पर 
अगर कोई फूल होता 
तो किताब में रख देने से सूख जाता 
नदी अगर होती कोई 
तो मैं तुमसे कहता चलो, लम्बी सैर पर चलें 
हँसी कोई धुन होती 
तो हम बार-बार सुनते उसे 
और किसी एक जगह पर ठहरकर सोचते
पूरा हो गया है संगीत 
हँसी अगर कोई लहर होती
तो हम डूबते डूबते डूब जाते 


















चिरमित्रा -१


युगों-युगों तक तुमसे मिलने को मैं जीवित रहा हूँ 
कुम्हलाती डोर भाप की जोड़े रहेगी जाने कब तक तुम्हारी छाया से  
पिघलती देह में बहकर भी मुझसे छूट जाते तुम तो अच्छा था 

मैं ढूँढता हूँ वो शब्द जो कभी कहे नहीं गए 
कहीं किसी पत्थर के नीचे, किसी फ़ॉसिल में खुदे हुए मिलेंगे 
अभिव्यंजना में पड़ी गाँठ मगर देख सकेगा कौन!

नींद किसे नहीं ले जाती अगम सुरंगों से होकर 
दुनिया दुनिया बौराती दुनिया 
खो गयी एक तितली तुझमें रंगीन पंखों वाली 

जंगल से गुज़रते हुए तुमने किसी जगह का ज़िक्र नहीं किया  
बीता! बीता! बीत गया दिन लो फिर अनबुझ साँझ आयी 
मेरा नाम मुझसे कब तक छुपाकर रखोगी चिरसखि!

एक सूरज है जो मेरे ऊपर रखा हुआ है 
एक पहाड़ है जिसे मैं धकेलता हूँ जाने किस ओर, अथक  
तुम्हारी मुस्कुराहट से मुझ पर झरते हैं चम्पा के फूल

तुम्हारी आँखों की कल्पना- जहाँ तक कोई सड़क ना जा सकी 
कोरा, असंस्कृत समय, खोलता हुआ, घोलता हुआ निर्ममता से परतें 
आसमान के विषय में कोई राय बनाना मुमकिन है कहाँ

वो जो एक सूत की चादर से नापता है ज़मीन
तुम्हें भी जानता होगा तुम्हारे पैरों की छाप से 
उतना ही है इतिहास क्या जितना घड़ी में बीता समय?

जेठ में भर जाएगा हृदय आषाढ़ के गीतों से 
समेटते भी रहे तो कितना कुछ रह जाएगा अनछुआ 
सब कुछ बीत जाएगा कुछ भी बीतने से बहुत पहले 

लिखने को लिख भेजे हैं एक-एक कर मैंने सब भेद अपने 
आधा ही मगर ख़ाली हो सका है अंदरूँ अब तक  
तुम्हें क्यूँ लिखता हूँ ये भेद नहीं जानता    

१०
आह! वह तारा कितना सुंदर, कितना प्यारा 
देख जिसे हमने गाए सब गीत, किया जीवन-रस पान  
हाय! कितने युगों का झुलसा, अनल का बंदी बेचारा 

११
चार बजे अपराहन, यकायक जागकर देखता हूँ
रात एक पिशाच है, जिसने मुझे और तुम्हें निगल लिया है 
मैं सोचता हूँ सुबह होने तक तुमसे छूट जाऊँगा मैं