Monday, 2 January 2017

चिरमित्रा -१


युगों-युगों तक तुमसे मिलने को मैं जीवित रहा हूँ 
कुम्हलाती डोर भाप की जोड़े रहेगी जाने कब तक तुम्हारी छाया से  
पिघलती देह में बहकर भी मुझसे छूट जाते तुम तो अच्छा था 

मैं ढूँढता हूँ वो शब्द जो कभी कहे नहीं गए 
कहीं किसी पत्थर के नीचे, किसी फ़ॉसिल में खुदे हुए मिलेंगे 
अभिव्यंजना में पड़ी गाँठ मगर देख सकेगा कौन!

नींद किसे नहीं ले जाती अगम सुरंगों से होकर 
दुनिया दुनिया बौराती दुनिया 
खो गयी एक तितली तुझमें रंगीन पंखों वाली 

जंगल से गुज़रते हुए तुमने किसी जगह का ज़िक्र नहीं किया  
बीता! बीता! बीत गया दिन लो फिर अनबुझ साँझ आयी 
मेरा नाम मुझसे कब तक छुपाकर रखोगी चिरसखि!

एक सूरज है जो मेरे ऊपर रखा हुआ है 
एक पहाड़ है जिसे मैं धकेलता हूँ जाने किस ओर, अथक  
तुम्हारी मुस्कुराहट से मुझ पर झरते हैं चम्पा के फूल

तुम्हारी आँखों की कल्पना- जहाँ तक कोई सड़क ना जा सकी 
कोरा, असंस्कृत समय, खोलता हुआ, घोलता हुआ निर्ममता से परतें 
आसमान के विषय में कोई राय बनाना मुमकिन है कहाँ

वो जो एक सूत की चादर से नापता है ज़मीन
तुम्हें भी जानता होगा तुम्हारे पैरों की छाप से 
उतना ही है इतिहास क्या जितना घड़ी में बीता समय?

जेठ में भर जाएगा हृदय आषाढ़ के गीतों से 
समेटते भी रहे तो कितना कुछ रह जाएगा अनछुआ 
सब कुछ बीत जाएगा कुछ भी बीतने से बहुत पहले 

लिखने को लिख भेजे हैं एक-एक कर मैंने सब भेद अपने 
आधा ही मगर ख़ाली हो सका है अंदरूँ अब तक  
तुम्हें क्यूँ लिखता हूँ ये भेद नहीं जानता    

१०
आह! वह तारा कितना सुंदर, कितना प्यारा 
देख जिसे हमने गाए सब गीत, किया जीवन-रस पान  
हाय! कितने युगों का झुलसा, अनल का बंदी बेचारा 

११
चार बजे अपराहन, यकायक जागकर देखता हूँ
रात एक पिशाच है, जिसने मुझे और तुम्हें निगल लिया है 
मैं सोचता हूँ सुबह होने तक तुमसे छूट जाऊँगा मैं  








No comments:

Post a Comment