जब आँखें तुम्हारी दो शब्द
बनकर,
दबे पाँव मेरी लेखनी में
उतर आती हैं,
जब अधेड़ बादलों में
मुसकराता ,
एक प्यारा चेहरा सा बन जाता
है,
जैसे किसी छोटे बच्चे को ,
उसका मनचाहा खिलौना मिल गया
हो,
जब झुलसाते सूरज की ताप
में,
तुम बिना जताए थोड़ी सी ठंडक
ले आते हो,
जैसे दावानल में गंगाजल के,
छीटें कोई संत बरसाता हो,
जब कागज़ पर कुछ चित्र
बनाकर,
मैं बार-बार मिटा देता हूँ,
जाने किस भय से
जब सीधे-सादे गीत से,
छायाएं मुखर हो उठती हैं,
जब तुम्हारे गुनगुनाने भर
से,
पंक्तियाँ अमर हो उठती हैं
जब रोकने पर भी रुकते नहीं,
मुड़कर भी एक दफे तकते नहीं
और सपनों में जब बिना इजाज़त
चले आते हो,
तब धडकनें कुछ तेज़ चलती हैं
मेरी,
और इन सब में नगण्य बनी
मेरी कलम,
क्षण भर को रुक सी जाती है
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