गीत क्यूँ?
जब आज़ाद हूँ मैं,
सुर तो सदा बांधते ही रहे हैं,
व्यर्थ के बंधनों में...
गीत क्यूँ?
जब पंख हैं मेरे,
अन्तरा तो चिर से ही,
समेटता रहा है प्रीत के पिंजरे में...
गीत क्यूँ?
जब शब्द ही झूठे,
शिथिल पड़े हैं,
अपना अस्तित्व खोते...
गीत क्यूँ?
जब नज़्म सारे दब गए,
सो गए चिरनिद्रा में,
कल ही गुज़रे किसी शायर की कब्र में...
गीत क्यूँ?
जब मुखड़ा है भ्रामक,
तस्वीरें बनाता है प्रत्यक्ष की,
सत्य को सदा ताक पर रख के...
गीत क्यूँ?
जब बेसुरा हूँ मैं,
होठ भी तो थक जाते हैं,
गाने का अभिनय करते हुए...
गीत क्यूँ?
जब संगीत भीतर है मेरे,
और रचनाएं सारी चुरायी हुई थी,
किसी और के ह्रदय से...
गीत क्यूँ?
जब नदी का बहना,
और बारिश की टिप-टिप,
आँखें मूंदें भी सुन सकता हूँ मैं
गीत क्यूँ?
जब क्षणिक उद्वेगों में,
नहीं मिलता सार कभी जीवन का,
गीत क्यूँ?
क्यूँ देखें अब गैर सारे,
हँसता चेहरा मेरी उधड़ी सीवन का
गीत क्यूँ किसी ख़ुशी में, किसी उदासी के मंज़र में अब,
क्यूँ बेवजह यादें सारी इन गीतों से जुड़ जाया करती हैं?