Thursday, 18 September 2014

आत्मबोध

आज सुबह उठकर,
बेसुध कलम को जगाया सलीके से,
थके-मांदे राही की कच्ची नींद का टूटना,
देखता रहा कुछ क्षण मुस्कुराता,
फिर एक कविता लिखी, आज पहली मर्तबा खुद पर
उसे पढ़ा मगर मैंने तो अवाक रह गया,
वही आखें, वही उलझी लटें, वही बेढब फैला काजल
यह मेरी पुरानी कृतियों से बिलकुल भी अलग नहीं थी

तुम जो उतर आते थे मेरी रचनाओं में,
क्या मेरे अहम् के पहलू मात्र थे?
क्या तथाकथित वह प्रेम मेरा, संकरा, उथला,
मेरे कृतिम अधूरे स्व की पूर्ति का साधन मात्र था?
आज निरर्थक, जड़ हो गए इस एक ख्याल से,
सारे श्रेष्ठ, पवित्र, मनोभाव मेरे
पूछना बेमानी है- क्या तुम हो?

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