Monday, 1 September 2014

सारांश

टूटे गीतों की अब चाह किसको?
हिम की स्निग्ध सतह पर नेह, 
दावानल सी उष्म लगे अब अपनी ही देह 
शहर बस्ती, नगरों का थका-माँदा,
उलझी हुई मुस्कान की चादर पर पैर फैलाये,
बैठा फ़कीर अविराम गाये तो गाये|

कृत्रिम श्रेय का अब मोह किसे? 
साकी ह्रदय से जिसने हों कुछ रंज लिए,
बीती रही न रत्ती अनकही,कल किसने जाना प्रिये!
आज यदि नेपथ्य में खुद को अनाम कहकर,
आम्र का रस पिए, वो नीम की दातुन चबाये 
क्या फर्क! बोल मेरे फिर कोई दोहराए तो दोहराए|      

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