कुछ बरस पहले मैंने पुराने
तहखाने से तुम्हारी सारंगी निकलवा ली,
धूल परत-दर-परत जमी थी उस
पर, ढल चुकी थी फिन्गर्बोर्ड के सांचे में,
और धूल पर लिखी थी तुम्हारी
सभी नायाब धुनें, परत-दर-परत,
धुनें जिनके पैटर्न मैं पढ़ रहा
था, धुनें मगर जो मैंने कभी छेड़ी नहीं,
धुनें सब एक सी, धुनें सब
अनूठी, खालिस, मर्म भरी
तुम्हारी सारंगी की तारों का
ध्यान मैंने मगर भंग नहीं किया,
ख़त के साथ इकतारे पर बजाई
इक सरगम बाँध रहा हूँ,
वक़्त मिले तो लिखना, क्या
मैं अब भी बेसुरा हूँ?
मैं तुम्हे ख़त लिखता, भेजता
कुछ नज़्म, ग़ज़लें, कवितायेँ मगर
किसी अज्ञात संशय से ठहरा
रहता था, दिन-ब-दिन, साल-दर-साल
कभी झुंझलाकर लिखता, अब यह
हठ छोडो, लौट आओ
काठ की सारंगी, और काठ के
ही तुम्हारे श्याम हैं,
फिर किसी अंतर-अनुभूति से बाध्य
,तुम्हारे हठ को मौन स्वीकृति देता ह्रदय मेरा,
तुम्हारी सारंगी और
तुम्हारे श्याम पर से धूल की एक परत हटा देता
धूल जो हवा में उडती नहीं
थी, आकाश के क्रंदन में मिलकर संगीत हो जाती थी
और तुम्हारा संगीत यूँ ही
घुलता रहा, जमता रहा मुझमे, परत-दर-परत
सुनो मीरा! ये ख़त तुम तक
पहुंचे तो जवाब मत लिखना,
मेरा अहम् घुलने में शायद कुछ
बरस और लगेंगे |
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