Thursday, 7 August 2014

मीरा-१/ ज़हर का प्याला

मैं रात भर ज़हर के उस प्याले को टटोलता रहा,
खाली हो जाने के बाद भी, देर तक एकटक देखता रहा
शीशे के उस प्याले में मेरे लहू का रंग साफ़ दिखता था
तुम्हारी ऊँगलियों के निशाँ फीके पड़े थे प्याले के तले पर,
उफ़! नींद की गोलियां लेकर भी चाँद क्यों सो नहीं पाया था?

मेज़ पर रखी किताब का एक किरदार मुझसे अनाम बनकर मिला,
कुछ देर रुका, फिर वह भी दरवाज़ा खुला छोड़ गया
रात भर चांदनी खिडकियों से, दरवाज़ों से भीतर आती रही
प्याला भरा, खाली हुआ, सिलसिला चलता रहा, रात भर 
खैर, रात न बीती, न ज़हर ही ख़त्म हो सका उस प्याले का
सुबह तकिये के नीचे से तुम्हारी लिखावट में मीरा के कुछ गीत मिले,
मैं मेरी उलझनों का सार नहीं हूँ, तुमने ख्वाब में चुपके से कहा था|

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