अजनबी शहर में किसी को
ढूंढता था हर घडी,
तुम मिले हो आज तो जैसे
तलाश पूरी हुई
पैरों के छालों को भी कुछ
तलब है अब,
इस संगमरमर पे फूट जाने की
ये दिल भी अकेला कब तक रहता
सलामत
ख्वाहिश जगी है इसे भी, अब
गिरकर टूट जाने की
अब कहीं ठिकाना हो, मुझे
खानाबदोश का भी
मैं भी शाम को पंछी सा घर
लौट कर आऊँ
ये शाख पत्ते सुने डूबकर इस
उम्मीद में,
कुछ नज़्म लिखूं होश खोकर,
कुछ गीत गाऊं
तुम झांकोगे जब इनमे, तो
गूंजेंगे बोल अनकहे
फिर यहाँ छेड़ोगे तुम साँसें
मेरी अनछुई
अजनबी शहर में किसी को
ढूंढता था हर घडी
तुम मिले हो आज तो जैसे
तलाश पूरी हुई |
कुछ खलिश थी उस ख्वाब में
जो बरसों से संजोये बैठा था
आज खुली है आँख तो तसव्वुर ने
ज़मी को छू लिया
फितूर जागा है फिर,
मुस्कुराता है, कनखियों से देखता है मुझे
नज़रें चुराता ,मैं बचता
फिरता हूँ उसके तासुर में खोने से
कल तक चीथड़े लिए फिरता था जहाँ
तार-तार मन के
आज समेटता हूँ वहीँ अरमानों
की बिखरी रुई
अजनबी शहर में किसी को
ढूंढता था हर घडी
तुम मिले हो आज तो जैसे
तलाश पूरी हुई |
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