रूह की जालीदार परतों से आज कुछ
हर्फ़ निकले,
इक भूली ग़ज़ल सफ़ेद का फैलाव लिए
मुझे ढंकने चली आई
तुम पढोगे तो कहोगे बेमतलब, बेमानी,
झूठी है ये ग़ज़ल
इतनी घुटन में भी जिंदा रही मगर,क्या
इतना काफी नहीं?
कितना बेसुध कितना टूटा आज भीतर का
शहर
मेज़ पे पड़ी इक खाली दवात सूखी स्याही
से घंटों बातें करती है
मुखौटों की भीड़ है यहाँ, एकाकी
चेहरों में छुपी
अम्बर के भी दो भाग मिले हैं, सागर
का सूखा किनारा
तुम आओगे, चले जाओगे, फ़कीर गाता
रहेगा
कल सुबह उसकी आवाज़ में जाने कैसी
खामोशी सुनी मैंने
आज सुबह तुम्हे ढूंढा तो कुछ पीले
लिफाफे मिले,
मेरे सामान के साथ जो कुछ टीस भरे
गीत बाँध दिए थे तुमने
कह रही बेतरतीब फैली स्याही, तुम आओ
पुरानी दवात बनकर
पूछो अपने अंदाज़ में बिखरे रंगहीन शब्दों
से हाल कागज़ का
छूकर बताओ अँगुलियों से, क्या अब
तलक भी लिख चुका उर-ताप सारा
अम्बर के दो भाग मिलेंगे, सागर का
सूखा किनारा
फर्क क्या तगाफुल भी कर दो तुम अगर;
कैलेंडर के खाली चेहरे पर लिखा एक
और गीत मेरा
लम्हे अक्सर याद रह जाते हैं मगर, तारीखें
भूलने की जद्दोजहद में
परछइयां मिटती रही हैं रौशनी के
रुख बदलने से यहाँ इक-इक करके
अब अँधेरा छटने से पहले चाहो तो गुनगुना
लो,
रूह की जालीदार सतह की तहों से
निकली
एक मामूली ग़ज़ल|
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