पुष्प-कंटकों से बरबस आहत हुए
भाव शून्य ह्रदय की संगिनी,
बीते क्षणों की परतों में शांत बहती,
क्या एकांत स्मृति मात्र हो तुम?
दृष्टि विहीन एकांकी के नेत्र बने,
तुम्हारे सांचे में ढलते संवादों की,
तुम्हारा रक्त पाकर जीवित हुए मूक पात्रों की,
क्या जीवंत वाणी मात्र हो तुम?
स्वैर कल्पनाओं का सार सुनाती,
निश्वास कृतियों की भद्दी लकीरों में,
कुछ श्वास भरती, कुछ मर्म चुराती,
क्या ललिता की अन्तरंग सखी मात्र हो तुम?
पूर्णता की अनुभूति नहीं,
रिक्तता का आभास नहीं,
फिर क्यों तुम्हारे अभाव में अर्थहीन,
हो जाता है अंतर्-संगीत?
क्या शब्द सारे मेरे, तुम्हारे नाम का विस्तार मात्र हैं?
और अनंत से अनंत तक फैले,
मेरे ये गहरे-उथले, सूक्ष्म-स्थूल,
मौलिक-प्रेरित,अव्याख्येय भाव,
मात्र तुम्हारा संक्षिप्त परिचय?
भाव शून्य ह्रदय की संगिनी,
बीते क्षणों की परतों में शांत बहती,
क्या एकांत स्मृति मात्र हो तुम?
दृष्टि विहीन एकांकी के नेत्र बने,
तुम्हारे सांचे में ढलते संवादों की,
तुम्हारा रक्त पाकर जीवित हुए मूक पात्रों की,
क्या जीवंत वाणी मात्र हो तुम?
स्वैर कल्पनाओं का सार सुनाती,
निश्वास कृतियों की भद्दी लकीरों में,
कुछ श्वास भरती, कुछ मर्म चुराती,
क्या ललिता की अन्तरंग सखी मात्र हो तुम?
पूर्णता की अनुभूति नहीं,
रिक्तता का आभास नहीं,
फिर क्यों तुम्हारे अभाव में अर्थहीन,
हो जाता है अंतर्-संगीत?
क्या शब्द सारे मेरे, तुम्हारे नाम का विस्तार मात्र हैं?
और अनंत से अनंत तक फैले,
मेरे ये गहरे-उथले, सूक्ष्म-स्थूल,
मौलिक-प्रेरित,अव्याख्येय भाव,
मात्र तुम्हारा संक्षिप्त परिचय?