Tuesday, 21 May 2013

किस धागे से बंधे हो

किस धागे से बंधे हो कहो  अब तक  
कौन सा मोह फिर खींच लाया तुम्हे...
क्या थक गए सुनकर ताने सब आने-जाने वालों के
क्या बुलाते थे अनकहे किस्से उन बीते-गुज़रे सालों के
क्या चिढाती थी जीभ निकालकर वो चेहरे की झुर्रियां
क्या ढूंढते थे टूटे आईने में तुम मेरी ही सुर्खियाँ
या मिटाने चले आये आज सारी, तुम बंधनों से पड़ी सलवटें
क्या टूटे सपनों में गिनते रहे तुम गुज़रते वक़्त की करवटें
क्या कोई बात अनसुनी थी जो आज कहने आये हो
नज़र भर देखना है ये आशियाँ या फिर से रहने आये हो
वो आम के पेड़ राह देखते थे तुम्हारी,
मैं तुम्हारा संदेस जा के कहता हूँ उन्हें
किस धागे से बंधे हो कहो अब तक
कौन सा मोह फिर खींच लाया तुम्हे

कहीं पैमानों ने ललकारा तो नहीं
ज़मीर-ऐ-आबिदीन को तुम्हारे
या दूर के ढोल सुनकर तुम नाहक ही दौड़े चले आये
क्या धुन पुकारती थी किसी पुराने गीत की बरबस
या कुछ बोल लिखे है नए जो सुनाने चले आये  
क्या ठोकरें लगी तुम्हे, या खामोशी से तंग आ गए
या तवारीख के पुराने खंडहर आज तुम्हे बेवजह भा गए
क्या आज जाना तुमने बिलकुल मेरे जैसे थे तुम हमेशा,
अपराध-बोध खोखला कर गया तुम्हे, या उम्मीदों के दीमक खा गए
क्या रूठ गए थे मुझसे उस रोज़, क्या आज नाराज़गी ख़त्म हुई    
या खो गए थे उस भीड़ में शहर की ,तुम मुझे ही ढूंढते हुए..
किस धागे से बंधे हो कहो अब तक
कौन सा मोह फिर खींच लाया तुम्हे
 


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