Tuesday, 7 May 2013

दो किनारे


दो किनारे
नदिया के दो किनारे, इक तुम इक हम
चलते हैं बेसहारे, इक तुम इक हम
तुम देखते हो हताश मुझे
मैं देखता हूँ निराश तुम्हें
पग बड़े हैं तुम्हारे,मस्तक मंजिल की रौशनी से चमके
मेरी कश्ती लहरों के भरोसे ,बढ़ रही है
हिलडुल के थम-थम के

हम मिलें ना मिलें चलते-चलते
नज़रें अनायास ही मिल जाती हैं
कुछ मेरा दर्द कहें तुझसे
कुछ तेरा हाल सुनाती हैं
कुछ बेझूं संदेसा उस पार तुम्हें
पर सुन लेंगे केवट सारे
कुछ बहते धार की धारा में
मजधार में हैं कुछ फंसे बेचारे

कुछ श्वेत हंस कुछ बगुले हैं
कुछ पंछी मारे फिरते हैं
कुछ ज्वार-भाटा की दिशा में,
उठते हैं फिर गिरते हैं
कुछ सदियों की प्यासी रूहें
आईं हैं नदिया के तीरे
बूँद-बूँद जल गगरी भारती हैं धीरे-धीरे
कुछ चकाचौंध के मारे हैं
कुछ मद में डूबे साकी हैं
अब तेरी-मेरी फ़िक्र किसे
सब खुद में खोये एकाकी हैं

डर लगे मुझे कभी यूँ ही
तुम हो ना हो उस पार वहां
पर मृगतृष्णा कोरे कवि की
होती है इतनी सौम्य कहाँ
और कल्पना भी मुझ अबोध की
 है धुंधली दुविधा की मारी
तुम सा तेज कहाँ उसमें
कहाँ आकर्षण तुमसा भारी

कुछ तो कहो अब चुप ना रहो
कि किनारा होता जाता है कंटियारा
नदिया होती जाती है चौड़ी ,तट बिछड़ते जाते हैं 
बदला जाता है आलम ये सारा
खैर, कुछ कहो ना कहो तुम सुनते जाओ
ये गीत उफनती लहरों का
फिर माझी के सुर में गाना
मल्हार पनपते शहरों का

और कभी मिलो गर इत्तेफाक से
तुम नज़रें चुरा लेना यूँ ही
मेरा भ्रम बना रहे जिससे,
तलाश ख़त्म ना हो ख्वाहिशों के दर पे
कि हम मिलें ना मिलें चलते-चलते
दो किनारे मेरे ख्वाबों में यूँ ही मिलते रहें

बस कभी-कभी जब सांझ ढले
तुम वो पुरानी धुन गुनगुना देना
कि भर आयें नैन शायद तुम्हारे   
 उन लहरों से उछली दो बूंदों से
वो मांझी का गीत फिर गूंजे शायद
 हटकर गीले-मैले उसके लिबास से  
और किसी अमावस की रात को  
टूटी पुलिया वाले उस मंदिर में,
 एक छोटा सा दीया जला देना
कि दो गज ज़मीन तो रौशन हो
          उस सूखी नदी की प्यास से        

No comments:

Post a Comment