फल कच्चे हैं
फल अभी कच्चे हैं सपनों के
अभी तो रस का मौसम भी नहीं आया
अभी ठंडी हवाओं में पत्तों से ढकी
टहनियों का खुलकर झूमना बाकी है
अभी मीठी धूप को सुन्दर फूलों का
खिलकर चूमना बाकी है
अभी जड़ें फैली नहीं हैं मजबूती से
धरती में गिरह बनाकर
अभी बूढ़े माली के पोते-पोतियों का
इसकी डाली पर झूलना बाकी है
शायद आयेंगे वो अगली गर्मी की छुट्टी में
जाने उसने अब तक उनका ख़त क्यूँ ना पाया
खैर अभी तो फल भी कच्चे हैं सपनों के
अभी तो रस का मौसम भी नहीं आया
अभी कोयल की मीठी कूक से मोहित
हुआ नहीं है उपवन सारा
अभी लाल-काली चींटियों ने ज़मीन से
मिट्टी की परत को नहीं उतारा
अभी गिलहरी की चंचल उछल-कूद में
गुजरी नहीं है शाम सारी
अभी कमसिन लताओं ने भी मोटे तने
का लिया नहीं है सहारा
जाने कितने टिड्डे अभी घास के रंग में
मिल जायेंगे देखते-देखते
कितने दफे बगल के पेड़ों की ठूंठ
डराएगी रातों में
कितने दफे शाखाएं फिर मज़बूत
हो जायेंगी बातों ही बातों में
अभी काँटों से कलियों की धाक हटना बाकी है
फिर उन्हीं काँटों को घेरकर कलियाँ
फूल बन जायेंगी देखते-देखते
माली के मोटे चश्मे में धुंधली दिखती दुनिया का
बदलेगा रूप-रंग, फिर पलटेगी सारी काया
पर फल अभी कच्चे है सपनों के
अभी तो रस का मौसम भी नहीं आया
No comments:
Post a Comment