याद है तुम्हे पानी की वो
परतें,
जो घाट की खूटों से बाँध दी थी हमने,
और सर्द रातों में उनके बर्फ हो जाने पर,
इक सुबह चन्दन की लकड़ी से खुरचकर
जो आँखें बना दी थी तुमने,
और मौसम-दर-मौसम उन परतों पर और परतें,
फिर और परतें जमती गयी,
जो घाट की खूटों से बाँध दी थी हमने,
और सर्द रातों में उनके बर्फ हो जाने पर,
इक सुबह चन्दन की लकड़ी से खुरचकर
जो आँखें बना दी थी तुमने,
और मौसम-दर-मौसम उन परतों पर और परतें,
फिर और परतें जमती गयी,
उन सर्द रातों में,
पानी का एकाकीपन, हम कहाँ?
जेठ की तपिश में,
बर्फ चश्म-ए नम, हम कहाँ?
निगाहें कब मिलीं, कब फ़ज़ा का तिलिस्म टूटा ?
पानी का एकाकीपन, हम कहाँ?
जेठ की तपिश में,
बर्फ चश्म-ए नम, हम कहाँ?
निगाहें कब मिलीं, कब फ़ज़ा का तिलिस्म टूटा ?
सुना है बह गयीं वो जंजीरें,
और वो खूंटे जो सहेज कर रखे हुए थी, सारी धरोहरें मौसम की
बर्फ की आँखें भी पिघली, और सब परतें, जंजीरें भी
रेत पर मौसमों की हथेलियों की छाप भेज रहा हूँ,
वक़्त मिले तो बहते पानी का वजूद लिखना |
और वो खूंटे जो सहेज कर रखे हुए थी, सारी धरोहरें मौसम की
बर्फ की आँखें भी पिघली, और सब परतें, जंजीरें भी
रेत पर मौसमों की हथेलियों की छाप भेज रहा हूँ,
वक़्त मिले तो बहते पानी का वजूद लिखना |
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