Wednesday, 10 December 2014

ग़ज़ल



महज़ चलने से हो कम जो ये दूरियां जाना
तेरे कूचे में, पैरों के छालों को सबा मिलती

चाशनी में डुबोये तेरी रूह के चंद सब्ज़ कतरे,
तेरी खुशबू में भिगोई आब-ओ-हवा मिलती

नीम के ज़र्द पत्ते जो ख़त में लिपटे मिलें कभी,
बेइलाज सही, वल्लाह! इस मरीज़ को दवा मिलती

प्यास बुझे शबनम की, गुलशन में रानाई आये  
टूटे पत्तों में बेरंग खिज़ा, माह-ओ-साल जवां मिलती    

तेरे ज़िक्र से मुसलसल हाय! लहरें उठे चनाब में,
छूकर गयी तुझे खोने से, तेरे होने से कहाँ मिलती? 

महज़ चलने से हो कम जो ये दूरियां जाना
तेरे कूचे में, पैरों के छालों को सबा मिलती

Tuesday, 9 December 2014

वजूद



याद है तुम्हे पानी की वो परतें,  
जो घाट की खूटों से बाँध दी थी हमने,  
और सर्द रातों में उनके बर्फ हो जाने पर,
 इक सुबह चन्दन की लकड़ी से खुरचकर  
जो आँखें बना दी थी तुमने,  
और मौसम-दर-मौसम उन परतों पर और परतें,  
फिर और परतें जमती गयी,

उन सर्द रातों में,  
पानी का एकाकीपन, हम कहाँ?  
जेठ की तपिश में,
 बर्फ चश्म-ए नम, हम कहाँ?
निगाहें कब मिलीं, कब फ़ज़ा का तिलिस्म टूटा ?

सुना है बह गयीं वो जंजीरें,  
और वो खूंटे  जो सहेज कर रखे हुए थीसारी धरोहरें मौसम की 
 बर्फ की आँखें भी पिघली, और सब परतें, जंजीरें भी
रेत पर मौसमों की हथेलियों की छाप भेज रहा हूँ,  
वक़्त मिले तो बहते पानी का वजूद लिखना |