Wednesday, 10 April 2013

सब भूल गए हमें


सब भूल गए हमें
सब भूल गए हमें, हम सबको भूल गए
जैसे किसी गहरी चोट में सब यादें खो बैठे हों
सब निकल पड़े टेढ़ी मेढ़ी राहों पर, सपनों का झोला ताने ,
करके वादा मिलते रहने का
फिर भूल गए वो वादा भी बाकी बातों की तरह
वैसे भी.....क्या मिलता किसीको खोलकर गुज़रे लम्हों की गिरह
सबको आगे बढ़ना था,सबको नसीब गढ़ना था
लिखा तो था पहले से मुकद्दर, शायद उसे खुली आँखों से पढना था

पर इस होड़ में कई चोटें खायी होंगी सबने
हर मोड़ पे साथी मिले होंगे नए, हर राह पे बिछड़े होंगे जाने कितने
ऐसे में यादों का बोझ क्यूँ भारी करें,  
क्या अच्छा नहीं धीरे धीरे सबको भूलते रहें
वो बेकार की बातों में जोर से हँसना,
वो लड़ना-झगड़ना, रूठना-मनाना,
यादें और भी हैं खट्टी-मीठी,
पर सबने मुनासिब  समझा उन्हें भूल जाना

तो हमने भी सोचा क्यों न नज़रें चुरा लें बीते कल से
जैसे कल ही शुरू हुई हो ज़िन्दगी
पर फिर यूँ ही कुछ सड़कों पर भीड़ से दूर एकाकी में
अतीत के बिखरे पुर्जे शोर में चुपके से कुछ कह जाते हैं
सब को याद आते होंगे हम ,
जैसे सब हमें याद आते हैं यूँ ही कभी फुर्सत में
वो यारों की कहानी,वो छप-छप करता पानी
वो प्यारी सी हमजोली, वो रोज़ नयापन कुदरत में
किसी से कहकर बोझ हल्का करते होंगे सब इन्हें खोने का
पर खुद में इतने खोये हैं, अब वक़्त भी नहीं रोने का
और कभी तो सपनों में भी वो पल सारे लौट आते हैं
जैसे आज भी उसी कल्पना में रहते हों
पर दिन--दिन धुंधलाती परछाइयों से ये बातों बातों
में कहते हों
सब भूल गए हमें , हम सब को भूल गए
जैसे किसी गहरी चोट में सब यादें खो बैठे हों

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