Tuesday, 18 November 2014

पर्दा


वो सर्द रातें जिनमे कि,
तुम्हारी ओस से भीगी हुए पलकों की उलझन,
का मुआयना कर लिया करते थे खिड़की से,
बागीचे के पौधे ,और उनपर लगे ज़र्द फूल
और सुनते थे ग़ज़लें पुराने टेप में बजती हुई,
पर्दा पर्दा न था, ज़रिया था

और गुफ्तगू में कई बार,
हवा से लहराता वो पर्दा,
राज़ कह जाता अपनी बुनतर के,
सूत के रेशों में रंगरेज़ का खुमार,
और दरवाज़े, खिडकियों से मिलने की झिझक 
खूटियों पर टंगे रहने से हथेलियों पर पड़े छाले
और बागीचे से मिलकर, एक चिड़िया,
एक फूल बन जाने की जगी-सोयी हसरतें
पर्दा पर्दा न था, अज़ीज़ था

मेरी रूह की पड़ताल हो तो अब कुछ परदे निकलें,
रंग-ब-रंगे, तह-दर-तह लपेटे हुए, बुने हुए मेरे होने में,
उन पर्दों से ढक दी जाएँ वो ओस से धुंधली हुई खिड़कियाँ
और वो ज़बरन भीतर आते बागीचे, मुझे देखकर बेवजह मुस्कुराते
वो बसंत-खिज़ा के बेगैरत फूल, मेरे वजूद के कतरे चुराते
अब छुप जाएँ तुम्हारे दस्तखत और तुम्हारी खुशबू में,
तुम पर पड़े पर्दों में, या तुम्हारे पर्दा हो जाने में |

Wednesday, 5 November 2014

एक कागज़ का टुकड़ा

वो कागज़ का टुकड़ा जीवित था उस लिखावट को संगीत मानकर,
बेढब हाथों से उस पर थी कुछ अर्थहीन लकीरें खिंची हुई,
वो नज़्म नज़्म कहता था, सब शब्द शब्द सुनते थे 
हर व्यंग्य भरी हंसी थोडा सा मिटा देती थी उन लकीरों का अस्तित्व 
हर तिरस्कार रत्ती भर खा जाता था उस कोरे कागज़ की जिजीविषा 
इक रोज़ इक अँधा फ़कीर आया और ले गया उसे साथ अपने,
वो कलम, दवात, लकड़ी की तख्ती, 
वो पुरानी किताबें, वो पीले पन्ने, वो टूटा लालटेन 
वो स्लेट, श्यामपट्ट और गुरूजी के कमरे का टेढ़ा दरवाज़ा,
वो गीत, ग़ज़ल ,कवितायेँ, कहानियाँ, नाटक और हकीकत 
सब अर्थहीन बन गए शब्दों के अभाव में,
एक कागज़ के टुकड़े पर बेढब खिंची लकीरों की,
मोहताज हो गयी समस्त वर्णमाला|