शब्द मौन हैं आज मेरे इस
कोलाहल में,
तुम्हारी आँखें हैरानी से
मुझको देखा करती हैं
कहती हैं कुछ बोलो, क्यों
मृत है आज तुम्हारी जिह्वा ?
कागज़ पर फैली स्याही में इक
चित्र बना है
बोल खोकर अपने, मैं उसकी ही
गहरायी में डूबा जाता हूँ
टूटे गीतों में अपने मुझको,
अक्सर उसकी ही परछाई दिखती रहती है
फीका होता जाता है वर्ण
भीतरी द्रव का, अकारण नहीं,
विष में मिलकर विष ही तो हो
जाती हैं जीवन-धाराएं सारी
तुम झूठा कहते हो मुझे,
क्यों अब भी मैं इसको रक्त बताता हूँ ?
तहखाने की इक शीशे की खिड़की
से एकटक तकती,
दो आँखें कौतूहल भरी, चेहरे
पर मेरे बेवजह रक्त सी लालिमा ले आती हैं
सच, कितना कुछ बाकी है समय
की कसौटी पर खरा उतरने को
जब तब खोता है मन भीतर का
संगीत इन अँधेरी गलियों में,
मैं अकेला चला था, तो भटकने
में साथ क्यों लूँ तुम्हारा
तुम कोरे सच के अंधे
गवेक्षक बन पूछते हो- क्या विरक्ति तुम्हारी मात्र छलावा है ?
कमल के कुछ पत्ते कहते हैं
बह चलो मेरी नींद में साथ मेरे ,
तट से दूर खींच लाया मुझे एक
अपरिचित संशय मगर,
सच! सपनों से भरी आँखें
बेहद खूबसूरत दिखती हैं
श्वासरोध के चिन्ह लिए मुख पर
से, आज अस्तित्व खोते भावांश सारे
तुम तमगा देकर वीर नायक का
मुझे, पूछते हो बड़ा मासूम प्रश्न ये,
किस पर जीवित हो, गर राह खो
चुके मरूद्यान की भी ?
पर्वत, पत्थर, मरुस्थलों के
उस पार एक शाश्वत बहता झरना है,
हर अंत में, हर आगाज़ में,
हर बंधते मोह में, हर टूटी डोर में,
फिर जीवित हो उठती है चाह
चलने की वहीँ से, पीकर दो घूँट जिजीविषा|