Saturday, 16 March 2013

तुम-ख्वाब या हकीकत


तुम-ख्वाब या हकीकत 


मैं धीरे धीरे तुमसे मिलता जाता हूँ 
अब तुम ख्वाब हो या हकीकत 
क्या फर्क पड़ता है   
रास्तों पे गिरते पड़ते अब चलने लगा हूँ 
लंगड़ाते हुए बेशक, 
तुम्हें बिना बैसाखी के मिलूं 
ये ख्वाहिश है मेरी 
सारे संग्राम चोटिल मन में 
रह रह कर तुम्हारी टीस जगाते हैं 
तुम्हारी कसक को लेकिन संबल बना लिया मैंने 
रास्ते यूँ ही कट जायेंगे तलाश में तुम्हारी हँसते-रोते
अब तुम ख्वाब हो या हकीकत 
क्या फर्क पड़ता है

कोई और नहीं, कुछ और नहीं 
बस तुम ही नज़र आओ यहाँ-वहाँ सूरत बदलकर  
तुमसे कुछ कहूँ तो रूठ ना जाओ  
तुम्हारी खोज में बस ये सोचकर 
तमाशा बना रहा हूँ सरेआम अपना
तुम्हारी बातों से हुई हैं मुश्किलें आसान 
जाने कितनी अनजाने में 
तुम्हारी आँखों से कितनी उलझनें सुलझी हैं 
कितने दफे साथी हुए तुम यूँ ही मेरे वीराने में

तुम्हारी शक्ल न देखी कभी 
नाम भी तुम्हारा अनाम में ही खोया रहा 
अब साथी पूछते हैं मुझसे पहचान तुम्हारी 
क्या कहूँ किसी से मुझ में किस कदर गुम हो तुम
तुमसे अलग मैं,मुझसे अलग तुम
अब हैं कहाँ
मेरे किसी किस्से से चुराए किरदार हो शायद ,
या किसी अधूरी ख्वाहिश के अवशेष हो तुम
सच हो मेरे अस्तित्व के अपने,
या चेहरे का बदला वेश हो तुम 
गीत हो तुम मेरे मन के रचे
फिर भी लबों से दूर हो तुम
ठहराव हो तुम्ही चेतन चित्त के 
और दीवानापन हो, फितूर हो तुम  

मेरी प्रेरणा हो तुम हर काव्य में छुपी,
मेरी जीने की ललक हो तुम  
मेरी नींद से जुड़े मतिभ्रम भी तुम्ही  हो  ,
और खुली आँखों की चमक हो तुम,
बस तुम हो मेरे होने में,
हर पाने में,हर खोने में 
अब तुम ख्वाब हो या हकीकत 
क्या फर्क पड़ता है |